पञ्चदशोऽध्यायः (अंतिम भाग)
पुरुषोत्तमयोग
अज्ञानी जन नहीं जानते, आत्म ज्ञान से हैं अपरिचित
ज्ञान रूप नेत्रों से देखें , ज्ञानी आत्मा से हैं परिचित
यत्न किये से योगी जानें, जिनका अंतःकरण शुद्ध है
अज्ञानी जन नहीं जानते, यत्न भी उनका हुआ व्यर्थ है
सूर्य चन्द्र का तेज है मुझसे, अग्नि भी मुझसे प्रकाशित
मैं ही धरा की धारण शक्ति, मेरे ही सब जन हैं आश्रित
रसस्वरूप चन्द्रमा मैं हूँ, औषधियों में रस भरता
वैश्वानर अग्नि मैं, मुझसे, ग्रहण किया अन्न भी पचता
अन्तर्यामी रूप से स्थित, मुझसे ही स्मृति और ज्ञान
वेदांत और वेद भी मुझसे, वेदों में मेरा ही गान
देह नश्वर, आत्मा अविनाशी, उत्तम पुरुष परे है इनसे
तीनों लोकों में प्रवेश कर, सबका धारण पोषण जिससे
पुरुषोत्तम मैं कहलाता हूँ, देह-आत्मा दोनों से पर
जो जानता तत्व से मुझको, भजता जान मुझे परमेश्वर
अति रहस्य युक्त ज्ञान यह, कहा है तुझसे मैंने अर्जुन
इसे जानकर ज्ञानी होते, और कृतार्थ हुआ करते जन
अति सुंदर ...आभार
ReplyDeleteपुरुषोत्तम मैं कहलाता हूँ, देह-आत्मा दोनों से पर
ReplyDeleteजो जानता तत्व से मुझको, भजता जान मुझे परमेश्वर
बहुत सुन्दर विवेचन्।
ज्ञान गंगा बह रही है .... सुन्दर विवेचन है ...
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