षोडशोऽध्यायः
देवासुरसम्पदविभागयोग
कृष्ण ने वर्णन किया पार्थ से, दैवी व आसुरी सम्पदा का
दैवी नर को मुक्त कराती, आसुरी से व्यक्ति है बंधता
निर्भयता, आत्मशुद्धि, अनुशीलन अध्यात्म ज्ञान का
दान, तपस्या और सरलता, सत्य, अहिंसा, लोभ विहीनता
रूचि यज्ञ में, वेदाध्यन, त्याग, तपस्या, शांति प्रियता
अक्रोध, पर दोष अदृष्टि, करुणा, लज्जा और भद्रता
तेज, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, संकल्पवान व अनइर्ष्यालु
सम्मान की न हो इच्छा, दैवी गुण वाला है दयालु
दम्भ, क्रोध तथा अभिमान, दर्प, कठोरता व अज्ञान
आसुरी सम्पदा ले जो उपजा, उसके ही ये लक्षण जान
हे अर्जुन, तू न हो व्याकुल, दैवी सम्पदा लेकर जन्मा
मोक्ष दिलाये दैवी प्रकृति, बंधन कारी आसुरी सम्पदा
दो ही तरह की सृष्टि जग में, एक आसुरी दूजी दैवी
दैवी पहले कही है मैंने, अब तू सुन क्या है आसुरी
क्या करना, क्या नहीं है करना, आसुरी जन यह नहीं जानते
हैं अपावन, अनाचरण कर, सत्य का भी न पालन करते
वे जगत को मिथ्या कहते, जिसका कोई नहीं आधार
कोई ईश्वर नहीं चलाता, काम से होता सब व्यापर
ऐसे मिथ्या ज्ञान को धरते, मंद बुद्धि, वे अनात्मवादी
भ्रष्ट आचरण ही है जिनका, जो मिथ्या सिद्धांत वादी
मृत्यु तलक चिंता में रहते, विषय भोग में तत्पर रहते
सुख यही बस एक मात्र है, ऐसा ही जो सबसे कहते
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