Wednesday, June 22, 2011

आत्मसंयमयोग (षष्ठोऽध्यायः)



आत्मसंयमयोग

षष्ठोऽध्यायः

 तज कर्मों को अग्नि त्यागे, मानो नहीं उसे सन्यासी
कर्म करे जो फल को त्यागे, योगी वही सच्चा सन्यासी

उसको ही तू योग जान ले, जो सन्यास कहा जाता
संकल्पों के त्याग के बिना, कोई न योगी हो सकता

योग में जो दृढ़ होना चाहे, निष्कामता को अपनाये
योगारूढ़, संकल्प रहित वह, सहज सर्व कल्याण को पाए

जब न कोई शेष कामना, न कर्मों में है आसक्ति
सर्व संकल्प रहित हुआ नर, योग में उसकी अनुरक्ति

स्वयं अपना उद्धार करे जो, अधोगति में न डाले  
निज शत्रु बन सकता मानव, चाहे स्वयं को मित्र बना ले

जीवात्मा वही मित्र है, जिसने मन इन्द्रियों को जीता
जो न ऐसा कर पाए, वह खुद से ही शत्रुता करता

सुख-दुःख, मान-अपमान में सम जो, सर्दी-गर्मी जिसे न छूती
स्वाधीन आत्मा है जिसकी, उसके भीतर भगवद प्रीति

तृप्त ज्ञान-विज्ञान से जो नर, निर्विकार, इन्द्रियजीत
मिट्टी, सोना पत्त्थर सम हैं, उस योगी में जगी है प्रीत

सुहृद, बैरी, मित्र, द्वेष्य में, उदासीन, मध्यस्थ, बन्धु में
धर्मात्मा, पापी में भी जो, सम रहता है, सदा योग में

तन-मन जिसके हुए अधीन, आशाहीन, अपरिग्रही
एकांत में रहे अकेला, परमात्मा में रहे सदा ही

भूमि स्वच्छ हो कुशा बिछाए, मृगछाला फिर वस्त्र रखे
न ऊँचा न नीचा आसन, योग का फिर अभ्यास करे

तन स्थिर अचल हो बैठे, अग्र भाग नाक का देखे
ब्रह्म में विचरण करता योगी, शांतमना मुझे ध्याये

परमशांति को पा लेता वह, जो इस भांति ध्यान लगाता
मध्यम मार्ग को जो अपनाये, सहज मुझे वह पा जाता

 न अतिभोजी न भूखा रहकर, न अतिनिद्रा न नींद त्याग कर
यथायोग्य विहार करे जो, योग सिद्ध करता है वह नर 

4 comments:

  1. परमशांति को पा लेता वह, जो इस भांति ध्यान लगाता
    मध्यम मार्ग को जो अपनाये, सहज मुझे वह पा जाता..

    bahut sundar panktiya...bhut hi badhiya aur utkrist sangrah hai ye anuvadit kaavya..

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  2. तज कर्मों को अग्नि त्यागे, मानो नहीं उसे सन्यासी
    कर्म करे जो फल को त्यागे, योगी वही सच्चा सन्यासी
    सुन्दर आत्मसंयमयोग..पढ़ कर मन को सकून मिला..धन्यवाद..

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  3. निशब्द कर दिया आपने.

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  4. जब न कोई शेष कामना, न कर्मों में है आसक्ति
    सर्व संकल्प रहित हुआ नर, योग में उसकी अनुरक्ति
    bahut sunder ...
    abhar..

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