Monday, June 27, 2011

आत्मसंयमयोग षष्ठोऽध्यायः (अंतिम भाग)


आत्मसंयमयोग
षष्ठोऽध्यायः (अंतिम भाग)
परम सत्य को पाने हित जो, कर्म किया करता है जग में
नाश नहीं होता है उसका, इहलोक या परलोक में

योगभ्रष्ट हुआ वह साधक, उत्तम लोकों को ही पाता
पुण्यात्मा के घर जन्मता, पुनः धरा पर जब भी आता

वैरागी भी पुनः जन्म ले, ज्ञानी माता-पिता को पाता
पूर्व जन्म के योग का फल वह, दुर्लभ जन्म को लेकर पाता

अनायास ही योग साधता, संस्कारी बालक वह होता
पुनः परम हित करे साधना, पहले से भी उन्नत होता

प्रयत्नशील साधक वह अर्जुन, दृढ़ होकर साधना करता
जन्मों के संस्कार के द्वारा, परम प्रभु को वह पा जाता

योगी श्रेष्ठ तपस्वी से है, शास्त्री है उससे कमतर
जो सकाम कर्म करते हैं, योगी उनसे भी बढ़कर

जो नर सदा आत्मा में रह, अविरत भजता है मुझको
परम श्रेष्ठ मेरी दृष्टि में, सदा प्रेम करता मैं उसको 

3 comments:

  1. कुछ व्यस्तताओं के कारण आपके ब्लॉग पर आने में विलम्ब हुआ..आज पिछले अंक भी पढ़े. मन को बहुत शांति मिली. भगवद्गीता का भावानुवाद पढना एक बहुत सुखद अनुभव है..आभार आपके प्रयास के लिये

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  2. इस प्रकार की रचना पढ़ने से मन को शांति मिलती है , आभार

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  3. परम सत्य को पाने हित जो, कर्म किया करता है जग में
    नाश नहीं होता है उसका, इहलोक या परलोक में

    अत्यंत ज्ञानवर्धक ...
    आभार इस अद्भुत प्रयास के लिए ...

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