चतुर्थ अध्याय
(ज्ञानकर्मसन्यासयोग)
कल्प आदि में दिया सूर्य को, यह अविनाशी ज्ञान, योग का
सूर्य से पहुँचा पुत्र मनु तक, मनु से इक्ष्वाकु तक पहुँचा
परंपरा से चला योग यह, कुछ पीढ़ी तक रहा जागृत
लुप्त हो गया फिर पृथ्वी से, आज पुनः कर रहा अनावृत
तू है मेरा भक्त व सखा, अति प्रिय, मुझे है प्यारा
वही पुरातन योग कह रहा, अति उत्तम रहस्य यह न्यारा
अर्जुन ने झट प्रश्न किया, केशव ! तुम तो अब जन्मे हो
जन्म सूर्य का अति पुराना, कैसे कहूँ, तुम सत्य हो
तेरे व मेरे तो अब तक, जन्म हो चुके हैं अनंत
मै जानता, तू न जाने, इसीलिए तू है संतप्त
मै अजन्मा, अविनाशी हूँ, ईश्वर हूँ इस जग का
ले आश्रय योगमाया का, वेश धरा करता नर का
जब-जब धर्म की होती हानि, बढ़ता जाता है अधर्म
तब-तब मैं प्रकट होता हूँ, बन मानव निभाता धर्म
सज्जनों की बढ़ती हो जग में, दुर्जन न फल-फूलने पाएँ
युग-युग में आता हूँ जिससे, धर्म पताका लहराए
मेरे जन्म-मरण दिव्य हैं, जो इस तत्व को जान सके
वह जीते जी मुक्त हो गया, वह नर ही मुझको पा सके
राग, भय व क्रोध मिटाकर, भक्त हुए मेरे कितने
प्रेमपूर्वक भजकर मुझको, ज्ञानी जन पा सके मुझे
जो मुझको जैसे भजता है, मै भी उसको वैसे चाहूँ
सभी अनुसरण करते मेरा, मैं ही उनको नाच नचाऊँ
जो कर्मों के फल में उत्सुक, वे देवों का पूजन करते
देव शीघ्र ही फल दे देते, जो न भक्ति, ज्ञान चाहते
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र, ये चार वर्ण मैंने ही बनाये
इतने पर भी जान अकर्ता, सृष्टिक्रम मैंने ही चलाए
कर्मों का फल नहीं चाहता, कर्मों से होता नहीं लिप्त
जो तत्व से जाने मुझको, वह भी रहता सदा अलिप्त
बेहतरीन भावानुवाद्।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर शब्दों में व्याख्या |
ReplyDeleteज्ञानवर्धक पोस्ट |
कर्मों का फल नहीं चाहता, कर्मों से होता नहीं लिप्त
ReplyDeleteजो तत्व से जाने मुझको, वह भी रहता सदा अलिप्त
अच्छा है.
आभार आपका इतने सुंदर अनुवाद के लिए .
ReplyDeleteज्ञानवर्धक रचना .