Thursday, June 2, 2011

भगवद्गीता का भावानुवाद


द्वितीय अध्याय (शेष भाग)

(सांख्य योग )


देह आत्मा का विवरण, जो सांख्य शास्त्र अनुसार कहा
अब सुन कर्म योग की चर्चा, बंधन से जो दे छुड़ा

निश्चल कर बुद्धि को अपनी, एक लक्ष्य पर इसे लगा
सत्व, रज, तम तीनों को तज दे, निर्द्वन्द्व, समचित्त हो जा

सुख-दुःख, लाभ-हानि को तजकर, कर युद्ध तू होकर निर्भय
पाप का भागी न होगा तू, चला बाण पाकर अभय

कर कामना रहित युद्ध तू, एक निष्ठ हो, रत हो जा
कर्मों के बंधन न होंगें, मुझसे यह आश्वासन पा

कर्मयोग है अद्भुत जिसमें, होता कुछ भी नाश नहीं
कर्म नहीं बंधते जिससे, जन्म-मरण की फांस नहीं

कर्मफलों हित जो नित रत हैं, स्थितप्रज्ञ न हो पाते
इधर-उधर ही डोला करते, अविवेकी ही कहलाते

भोग, स्वर्ग ही प्राप्य हैं जिनके, नाना कर्म किया करते
सुख के पीछे दौड़ा करते, एक निश्चय न कर पाते

अनासक्त हो जा तू अर्जुन, हर्ष-शोक द्वंद्वों से मुक्त
योग-क्षेम की तज आकांक्षा, नित्य रह योग में युक्त

पूर्ण जलाशय पाकर कोई, ताल तलैया नहीं खोजता
एक ब्रह्म को जाना जिसने, फल की वांछा न करता

कर्मों में अधिकार है तेरा, फल तो तेरे हाथ नहीं
एक निष्ठ हो कर्म किये जा, इसमें कोई प्रमाद नहीं

सम बुद्धि ही बुद्धियोग है, यही कर्मयोग कहलाये
पाप-पुण्य से परे रहेगा, तू योग में टिक जाये

मोह दलदल से उबर गया, तो वैराग्य फलित होगा
परम तत्व में स्थिर होकर, नित्य परमसुख पायेगा

अर्जुन सुन केशव की वाणी, स्थिर बुद्धि होना चाहे
लक्षण पूछे ऐसे जन के भय, क्रोध जिसे न सताए

स्थितप्रज्ञ का वर्णन तब, लगे कृष्ण, पार्थ से कहने
आत्मा में संतुष्ट हुआ जो, त्याग दी कामना जिसने

सुख की चाह नहीं करता, वह दुःख से न घबराता है
मन है अपने वश में जिसका, शांति वही नर पाता है

निस्वार्थ हो जग में विचरे, तज ममता और अहंकार
बुद्धियोग पा लेता वह फिर, छू न पाता उसे विकार

क्रमशः
  





7 comments:

  1. कर्मफलों हित जो नित रत हैं, स्थितप्रज्ञ न हो पाते
    इधर-उधर ही डोला करते, अविवेकी ही कहलाते



    अद्बुत ज्ञानदर्शन ...स्पष्ट मार्गदर्शन ...बहुत बहुत आभार आपका .

    ReplyDelete
  2. सुख की चाह नहीं करता, वह दुःख से न घबराता है
    मन है अपने वश में जिसका, शांति वही नर पाता है

    .....बहुत सुन्दर भावानुवाद...गीता ज्ञान का इतनी बोधगम्य भाषा में रोचक भावानुवाद के लिये हार्दिक बधाई...

    ReplyDelete
  3. स्थितप्रज्ञ का वर्णन तब, लगे कृष्ण, पार्थ से कहने
    आत्मा में संतुष्ट हुआ जो, त्याग दी कामना जिसने
    rom rom trip hua , bahut badhiyaa anuvaad

    ReplyDelete
  4. बहुत सुन्दर भावानुवाद..

    ReplyDelete
  5. कर्तव्यों के प्रति सचेत करती पंक्तियाँ......

    ReplyDelete
  6. आप एक महान काम कर रहीं हैं।

    ReplyDelete
  7. बढ़िया चिंतन है, सुन्दर रचना पढवाने के लिए आभार आपका !

    ReplyDelete