आत्मसंयमयोग
षष्ठोऽध्यायः (शेष भाग )
मन के द्वारा तजे कामना, इन्द्रियों का निग्रह करता
क्रम-क्रम से अभ्यास के द्वारा, सिवा परम उसे कुछ न रुचता
जहाँ-जहाँ यह मन जाता है, जिस-जिस विषय से यह बंधता
वहाँ-वहाँ से लौटा लाता, योगी पुनः प्रभु में लगाता
भली प्रकार शांत है जो मन, पाप रहित, क्रिया शून्य है
एक हुआ ब्रह्म के सँग जो, आनन्दित वह योगी धन्य है
पापरहित वह योगी ऐसा, आत्मा को परम में लगाता
सुख का अक्षय कोष पा गया, सदा परम के सँग ही रहता
सर्वव्यापी अनंत चेतना, जिसमें योगी स्थित रहता
निज आत्मा में हर एक को, सबमें निज स्वरूप देखता
मैं व्यापक हूँ सब भूतों में, सब प्राणी मुझमें ही रहते
जो ऐसा जानता योगी, मैं उसको वह मुझको देखे
सबके भीतर आत्मरूप से, तत्व एक ही व्याप रहा है
जग में होकर भी मुझमें है, जो योगी ऐसा जान सका है
आत्मरूप से सबको देखे, सुख-दुःख भी सबमें सम देखे
वही परम श्रेष्ठ योगी है, जो सर्वत्र परम को देखे
हे मधुसूदन !
समभाव का योग है सुंदर, लेकिन मेरा मन चंचल है
कैसे मन को सदा टिकाऊँ, टिकता नहीं यह पल भर है
मन बड़ा बलवान है केशव, इसे रोकना दुस्तर भारी
वायु रोकना जैसे न संभव, मन को कैसे रोकूँ मुरारी
केशव बोले माना अर्जुन, मन का ऐसा ही स्वभाव है
वश में होता है मुश्किल से, मन का ऐसा ही प्रभाव है
वैराग्य, अभ्यास से लेकिन, वश में इसको कर सकता
वैरागी को योग प्राप्त है, जो सदा अभ्यास है करता
जिसकी श्रद्धा है योग में, किन्तु न संयम रख पाता है
अंतकाल में भटक गया जो, कैसी वह गति पाता है
क्या वह परम को न पाकर, आश्रय रहित नहीं हो जाता
नष्ट हुए बादल सा वह भी, नष्ट व्यर्थ नहीं हो जाता
हे केशव यह संशय मेरा, आप ही इसका छेदन कर दें
और न कोई कह पायेगा, आप ही भ्रम का भेदन कर दें
बहुत ही खूबसूरत भावानुवाद्।
ReplyDeleteबेहतरीन ..संकलन योग्य ...
ReplyDeleteआभार !
बहुत ही खूबसूरत भावानुवाद्।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर...आभार..
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर सारगर्भित भावानुवाद्।
ReplyDeleteसंजो कर रखने वाला है ये भावानुवाद ... बहुत सुन्दर ..
ReplyDeleteजहाँ-जहाँ यह मन जाता है, जिस-जिस विषय से यह बंधता
ReplyDeleteवहाँ-वहाँ से लौटा लाता, योगी पुनः प्रभु में लगाता
ek-ek pankti yaad rakhne layak hai ..
bahut hi badhia...