द्वितीय अध्याय (अंतिम भाग)
( सांख्य योग)
सदा विरागी, समता धारे, विषयों से जो दूर रहे
आसक्ति भी नष्ट हो गयी, जिसके उर में शांति बहे
जो केवल रोके ऊपर से, भीतर संयम न धारे
ऐसे आसक्त बुद्धिमान भी, गए इन्द्रियों से हारे
विषयों का चिंतन जो करता, अंतर में कामना जगती
पूर्ण कामना हो न यदि, क्रोधाग्नि जलाने लगती
क्रोध मूढ़ता से भर देता, स्मृति भुला देती मूढ़ता
विस्मृति से नाश बुद्धि का, जिससे महा पतन होता
जिसका अंतर वश में अपने, जो राग-द्वेष से रहे मुक्त
अन्तःकरण प्रफ्फुलित उसका, हो जाते सारे दुःख नष्ट
जो न जीत सका है मन को, स्थिर बुद्धि नहीं है जिसकी
वह भावनाहीन अशांत है, सुख की नहीं प्रतीति उसकी
जैसे नाव हरी जाती है, वायु के झोंके के बल से
बुद्धि भी हर ली जाती है, मन-इन्द्रियों के छल से
जब सब प्राणी सो जाते हैं, रहे जागता वह तपस्वी
जग जब इतर सुखों में रत हो, सोया रहता वह मनस्वी
, नदियाँ जल भर-भर लातीं पर, सागर जैसे सदा अविचलित
सारे भोग समाते मन में, स्थितप्रज्ञ रहे अकम्पित
यही ब्रह्म को प्राप्त हुए की, स्थिति ब्राह्मी कही जाती
ब्रह्मानंद को प्राप्त हुआ वह, गति उसकी उन्नत होती
ध्यायतो विषयान पुंसः
ReplyDeleteसंगस्ते शूपजयते ...
संगात संजायते कामः ..
कामत क्रोधोभिजयते ...
ये श्लोक याद आ रहा है ..
आपको पढ़ना ..ईश्वरीय अनुभूति है ...!!
बेहद उम्दा भावानुवाद्।
ReplyDeleteसुन्दर शब्दों का संगम है इस रचना में ।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर शब्द रचना ।
ReplyDeleteशब्द सामर्थ्य, भाव-सम्प्रेषण, संगीतात्मकता, लयात्मकता की दृष्टि से भावानुवाद अत्युत्तम हैं।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावानुवाद ...
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया भावानुवाद्, विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
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