चतुर्थ अध्याय (शेष भाग)
ज्ञानकर्मसन्यासयोग
कर्म किसे कहते हैं अर्जुन, और अकर्म का क्या स्वरूप है
जानने योग्य है विकर्म भी, कर्म, अकर्म का विषय गहन है
कर्म में जो अकर्म देखता, और अकर्म में देखे कर्म
वही मुक्त हुआ बन्धन से, बुद्धिमान जानता यह धर्म
बिना कामना, संकल्प के, शास्त्र सम्मत कर्म जो करता
ज्ञानाग्नि में भस्म हुये सब, कर्मी वह ज्ञानी कहलाता
न आसक्ति कर्मों में ही, न ही उनके फलों में रखता
जगत का न लेकर आश्रय, परमात्मा में तृप्त जो रहता
सब कुछ करते हुए भी वह नर, कुछ भी नहीं यहाँ करता
इन्द्रियजीत वह तज आशा को, कभी न बंधन में फंसता
जो संतुष्ट है सहज प्राप्त में, ईर्ष्या से जो दूर हो गया
द्वन्द्वातीत कर्मयोगी वह, सब करके भी मुक्त हो गया
निर्मम, निरासक्त ,विदेही, सदा चित्त जिसका है प्रभु में
खो जाते कर्म सब उसके, यज्ञ हेतु प्रेम है जिसमें
जिस यज्ञ में हवि ब्रह्म है, ब्रह्म स्वरूप है कर्ता भी
ब्रह्मरूप अग्नि यज्ञ की, ब्रह्म ही है उसका फल भी
कुछ देवों का पूजन करते, कुछ आत्मा को पूजते
परम आत्मा से अभेद हो, भीतर यज्ञ किया करते
संयम की अग्नि में जलाते, कुछ इन्द्रियों के विषयों को
और अन्य इन्द्रियों में ही, करते अर्पित सब विषयों को
कुछ आत्मा में अर्पित करते, प्राणों की समस्त क्रिया को
शांत हुए वे बुद्धिमान जन, सदा मुक्त रखते हैं मन को
यज्ञ करें कुछ जन द्रव्य से, योग करें कुछ तप करते
कोई अहिंसा व्रत लेते हैं, कुछ स्वाध्याय किया करते
प्राणायाम साधते योगी, प्राणों का हवन करते
ये सब साधक यज्ञ जानते, पापों को भस्म करते
तुम्हारी भी जय जय और बांसुरी वाले की भी जय जय .
ReplyDeleteबहुत प्रभावपूर्ण ....
ReplyDeleteकुछ देवों का पूजन करते, कुछ आत्मा को पूजते
ReplyDeleteपरम आत्मा से अभेद हो, भीतर यज्ञ किया करते
संयम की अग्नि में जलाते, कुछ इन्द्रियों के विषयों को
और अन्य इन्द्रियों में ही, करते अर्पित सब विषयों को
adbhut gyan deti hui rachna...