तृतीय अध्याय (शेष भाग)
(कर्म योग)
नरश्रेष्ठ जो आत्मा रामी, तृप्त सदा आत्मा में है
नरश्रेष्ठ जो आत्मा रामी, तृप्त सदा आत्मा में है
कर्तव्य न शेष रहा कुछ, जो संतुष्ट आत्मा में है
कर्म करे या त्याग कर्म दे, उसका कोई स्वार्थ नहीं
हुआ मुक्त वह संबंधों से, उसका कोई परार्थ नहीं
तज आसक्ति कर्म किये जा, परम आत्मा को पायेगा
पायी जनक ने सिद्धि जिससे, लोकसंग्रह जब अपनाएगा
श्रेष्ठ पुरुष जैसा वरतेंगे, जन उसको आदर्श बनाते
वह प्रमाण खड़ा करता है, जन साधारण अपनाते
केशव बोले सारे जग में, मुझे न कोई कर्त्तव्य है
कुछ भी नहीं अप्राप्त मुझे, फिर भी नहीं अकर्त्तव्य है
यदि कर्म त्याग दूँ मैं भी, हानि होगी बड़ी अपार
नष्ट-भ्रष्ट हो जाएँ प्रजाएँ, होगा नष्ट सृष्टि संसार
जैसे अज्ञानी जन करते, आसक्ति वश कर्मों को
ज्ञानी जन तज आसक्ति, नहीं त्यागते कर्मों को
ज्ञानी स्वयं भी कर्म करे, औरों से भी करवाए
दृढ़ कर दे श्रद्धा उनकी, कर्म न उनसे छुडवाए
प्रकृति के गुण कर्म कर रहे, किन्तु अहंकारी न माने
मैं करता हूँ, मैंने किया है, ऐसा अज्ञानी माने
गुण विभाग और कर्म विभाग का, तत्व जानता जो ज्ञानी
कर्म हो रहे गुणों के द्वारा, स्वयं अलिप्त रहे ज्ञानी
किन्तु गुणों से जो मोहित हैं, उनको न विचलित करते
जो आसक्त अभी कर्मों से, उनको वे करने देते
मुझमें चित्त लगा तू अर्जुन, मैं अन्तर्यामी, ईश, नियंता
तज ममता और आसक्ति, तज संताप युद्ध में लग जा
जो अन्यों में दोष न देखे, श्रद्धापूर्ण हृदय वाला
कर्मों के बंधन से छूटे, इस मत पर चलने वाला
जैसे अज्ञानी जन करते, आसक्ति वश कर्मों को
ReplyDeleteज्ञानी जन तज आसक्ति, नहीं त्यागते कर्मों को
अद्भुत ज्ञान वृष्टि से सराबोर हुआ मन ...!!
आभार .
सुगढ़ भावानुवाद
ReplyDeleteजो अन्यों में दोष न देखे, श्रद्धापूर्ण हृदय वाला
ReplyDeleteकर्मों के बंधन से छूटे, इस मत पर चलने वाला
jai shree krishn
बहुत ही सुन्दर....
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