Monday, June 6, 2011

भगवद्गीता का भावानुवाद






तृतीय अध्याय
(कर्म योग )

अर्जुन बोले पुनः कृष्ण से, कर्मयोग से श्रेष्ठ ज्ञान है
घोर कर्म युद्ध का जिसमें, लगना भी तो अज्ञान है

श्रेष्ठतम ही कहिये मुझसे, जिससे हो मेरा कल्याण
मिले हुए वचनों को सुनकर, हो मोहित मैं हूँ हैरान

दो ही मार्ग प्रमुख हैं जग में, केशव ने समझाया
ज्ञान योग व कर्म योग, दोनों को ही बतलाया

कर्मों का आरम्भ न हो तो, निष्कर्मता प्राप्त न होगी
न कर्मों के त्याग से केवल, ज्ञान की ज्योति जलेगी

क्षण भर को भी कर्म के बिना, कोई न रह पाता
प्रकृतिस्थ गुणों के द्वारा, बाध्य उसे किया जाता

हठपूर्वक बैठ गया जो, ऊपर से ही है त्यागी
मन से चिंतन हो विषयों का, कहलाता वह दम्भी

मन से जिसने त्याग दिया हो, आसक्ति जिसकी छूटी
वह भी जग में कर्म करेगा, वही श्रेष्ठ कर्मयोगी

कर्म है उत्तम, कर्म बिना, तन का भी निर्वाह न होगा
यज्ञ के हेतु कर्म किये जा, तज आसक्ति, नहीं बंधेगा

कल्प के आदि में ब्रह्मा ने, यज्ञ सहित रची प्रजाएँ
यज्ञ कर्म से भोग मिलें, इससे ही जन वृद्धि पाएँ

देव समर्पित कर्म यदि हों, देवों का आशीष मिले
एक दूसरे को उन्नत कर, मानव का समुदाय खिले

बिन माँगे ही भोग मिलें, इच्छाएँ सब होंगी पूर्ण
किन्तु कहाएगा वह चोर, जो न करे देव अर्पण

शेष यज्ञ से बचा जो खाते, श्रेष्ठ वही कहलाते हैं
मुक्त हुए वे सब पापों से, किन्तु शेष पाप खाते हैं

अन्न से उपजा करते प्राणी, अन्न उपजता है वृष्टि से
यज्ञ किये से होती वृष्टि, यज्ञ पूर्ण होता कर्मों से

कर्म वेद से उत्पन्न होते, वेद परम ईश से उपजे
अतः अक्षर वह परम आत्मा, सदा प्रतिष्ठित है यज्ञ में

जो इस क्रम को नहीं मानता, कर्तव्य से विमुख हो गया

केवल भोगों में जो रत है, जीवन उसका व्यर्थ ही गया 

5 comments:

  1. जो इस क्रम को नहीं मानता, कर्तव्य से विमुख हो गया
    केवल भोगों में जो रत है, जीवन उसका व्यर्थ ही गया
    bahut sunder gyan se paripurn rachna ..!!

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  2. bahut achha lag raha hai in anuvaadon ko padhna

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  3. bahut shubh karam kar rhee ho.blog pdhna likhna sarthak ho gya.

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  4. अनुपमजी, रश्मिजी और दीदी ! आप सभी का बहुत-बहुत आभार !

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  5. बहुत सु्न्दर भावानुवाद चल रहा है।

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