Wednesday, April 6, 2016

श्रीराम का दुखी नगरवासियों के मुख से तरह-तरह की बातें सुनते हुए पिता के दर्शन के लिए कैकेयी के महल में जाना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

त्रयस्त्रिंशः सर्गः
सीता और लक्ष्मण सहित श्रीराम का दुखी नगरवासियों के मुख से तरह-तरह की बातें सुनते हुए पिता के दर्शन के लिए कैकेयी के महल में जाना

संग सीता के राम, लक्ष्मण, वन जाने को हो तैयार
गये पिता का दर्शन करने, दान ब्राह्मणों को देकर

उनके साथ चले दो सेवक, लेकर धनुष पुष्प से सज्जित
सीता ने जिनकी पूजा कर, चन्दन से था किया अलंकृत 

उस अवसर पर धनी लोग, खड़े देखते थे छतों से
तिमंजिले व सात मंजिले, ऊँचे अति राजभवनों से

भरी भीड़ से थीं सब सडकें, चलना कठिन हुआ उन पर
देख रहे थे जन छतों से, श्रीराम को दुख से भर कर

व्याकुल हुए शोक से कहते, पैदल जाते देख उन्हें
सेना चलती पीछे जिनके, आज अकेले चले जा रहे

ऐश्वर्य में सदा पले थे, पूर्ण कामना सबकी करते
धर्म का गौरव रखने हेतु, पितृ वचन को पूरा करते 

देख नहीं पाते थे जिनको, नभ में उड़ने वाले प्राणी
खड़े सड़क पर लोग देखते, पैदल चलतीं जनक नंदिनी

अंगराग, चन्दन से सेवित, कैसे वर्षा, शीत सहेंगी
ग्रीष्म आदि ऋतुएं अब इनकी, अंग कांति फीकी कर देंगी

निश्चय ही हुए आवेशित, राजा दशरथ किसी पिशाच से
निष्कासित करे प्रिय पुत्र को, कौन अपने सहज रूप में

गुणहीन भी हो यदि पुत्र, साहस नहीं निकाल दे घर से
जग मोहित है शील से जिसके, वनवास उसको दें कैसे

शम, दम, शील, दया, विद्या, और क्रूरता का अभाव है
छह सद्गुणों से राम सुशोभित, सुंदर अति पाया स्वभाव है

राज्याभिषेक नहीं होने से, प्रजा को भारी क्लेश हुआ
जीव तड़पते ज्यों सरवर में, ग्रीष्म ऋतु में जो सूखा

इन जगदीश्वर श्रीराम की, पीड़ा से जग व्यथित हुआ
जैसे जड़ें काट देने से, पुष्प सहित वृक्ष हो सूखा

ये महान तेजस्वी राम, मूल सभी मानवों के हैं
धर्म ही इनका बल है उत्तम, दूजे प्राणी शाखाएँ हैं

अतः लक्ष्मण की भांति हम, इनके पीछे-पीछे चल दें
जिस मार्ग से यह जाते हैं, उसका ही अनुसरण करें

बाग-बगीचे, घर-द्वार सब, छोड़ के चल दें इनके पीछे
गड़ी हुई निधि निकाल कर, सुख-दुःख के साथी हो लें

फर्श खोद डालें घरों के, धन-धान्य साथ ले लें
धूल भरे निवासों में इन, देवता भी इन्हें त्याग दें

चूहे निकल बिलों से दौड़ें, अग्नि जले न इन घरों में
झाड़ू भी न लगे यहाँ पर, यज्ञ, मन्त्र, होम न होवे  

बड़ा भारी अकाल पड़ जाए, ढह जाएँ ये घर सारे
टूटे बर्तन यहाँ पड़े हों, सदा के लिए इन्हें त्याग दें

ऐसी दशा में ही कैकेयी, आकर इन पर अधिकार करे
राम का वन ही बने नगर, नगर यह जंगल बन जाये

वन में हमलोगों के भय से, सांप छोड़ जाएँ अपने बिल
शिखरों को त्याग दें सारे, पर्वत के मृग व पक्षी गण

हाथी व सिंह उस वन को, त्याग दूर निकल जाएँ
यहाँ रहें आकर वे सारे, कैकेयी तब इसे सम्भाले

किन्तु विकार जगा न कोई, सुनीं राम ने ये सब बातें
मतवाले गजराज की भांति, वे तीनों महल में गये

दुखी सुमन्त्र वहाँ खड़े थे, अन्य कई अवध वासी भी
किन्तु सहज हो राम बढ़े, थी इच्छा पिता दर्शन की

दें सूचना महाराज को, कहा सुमन्त्र से यह राम ने
पिता की आज्ञा को मानकर, वन जाने का निश्चय करके


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में तैंतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ.

3 comments:

  1. आपने लिखा...
    कुछ लोगों ने ही पढ़ा...
    हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...
    इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना दिनांक 08/04/2016 को पांच लिंकों का आनंद के
    अंक 266 पर लिंक की गयी है.... आप भी आयेगा.... प्रस्तुति पर टिप्पणियों का इंतजार रहेगा।

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  2. बहुत बहुत आभार कुलदीप जी

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  3. बहुत बढ़ि‍या रचना

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