श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
षट्त्रिंशः सर्गः
राजा दशरथ का श्रीराम के साथ सेना और खजाना भेजने का आदेश, कैकेयी द्वारा इसका
विरोध, सिद्धार्थ का कैकेयी को समझाना तथा राज का श्रीराम के साथ जाने की इच्छा
प्रकट करना
इक्ष्वाकु कुल नन्दन राजा,
होकर पीड़ित निज प्रण से
अश्रु बहाते, श्वास खींचते,
फिर सुमन्त्र से यह बोले
रत्नों से भरी-पूरी जो,
चतुरंगिणी उस सेना को
श्रीराम के पीछे-पीछे, वन
जाने की आज्ञा दो
रूपाजीवा सरस स्त्रियाँ,
महाधनी व कुशल वैश्य भी
करें सुशोभित सेनाओं को,
जाये संग खजाना भी
वीर मल्ल जो प्रिय राम के,
आयुध, व्याध और पशु संपदा
संग चले यदि राम के वे सब,
नहीं करेंगे स्मरण राज्य का
यज्ञ करेंगे वे वनों में, राज्य
करें भरत अवध का
ऋषियों से मिल रहेंगे सुख
से, आचार्यों को दे दक्षिणा
मनोवांछित भोग से उन्हें,
सम्पन्न करके भेजा जाये
महाराज की बातें सुनकर,
कैकेयी का मन घबराए
गला रुंधा, सूखा मुख उसका,
त्रस्त हुई दुखी वह बोली
स्वाद विहीन वह सुरा न लेगा, सार भाग ले जिसका
कोई
सेवन करने योग्य न होगा, धनहीन
राज्य यह सूना
भरत कदापि न लेंगे इसे, सुन
कर तब राजा ने कहा
अनार्ये, अहित कारिणी,
दुर्वह भार दिया है तूने
शब्दों के चाबुक मारती, ढो
रहा उस भार को जब मैं
पहले तो यह नहीं कहा था, जाना
है अकेले वन में
जो प्रतिबन्ध लगाती है अब,
सेना, सामग्री देने में
बेहतरीन कार्य ...बेहतरीन लेखन ... बधाई !!!
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