श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
एकोनचत्वारिंशः सर्गः
राजा दशरथ का विलाप, उनकी आज्ञासे सुमन्त्र का राम के लिए रथ जोतकर लाना,
कोषाध्यक्ष का सीता को बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण देना, कौसल्या का सीता को पतिसेवा
का उपदेश, सीता के द्वारा उसकी स्वीकृति तथा श्रीराम का अपनी माता से पिता के
प्रति दोष दृष्टि न रखने का अनुरोध करके अन्य माताओं से विदा माँगना
जो स्त्रियाँ प्रियतम पति
से, सम्मानित होने पर भी
संकट में पड़ने पर उसका, आदर
नहीं किया करतीं
असती नाम से जानीं जातीं,
इस सम्पूर्ण जगत में वे
पति से सुख तो प्राप्त करें
पर, दोष लगातीं हैं दुःख में
मिथ्यावादी, ह्रदयहीना वे, विमुख
पति से पल में होतीं
अव्यवस्थित चित्त है उनका, दुष्टा
ही वे कहलातीं
उत्तम कुल, मिला सम्मान,
क्षण में भुला सभी को देतीं
नहीं उन्हें कुछ वश में
करता, सती नहीं वे जानीं जातीं
किंतु सत्यवादिनी जो हैं, मर्यादा का पालन करतीं
पति ही परम देवता उनका, वे
साध्वी कहलातीं
इसीलिए तुम मेरे पुत्र का,
कभी अनादर न करना
वनवासी ये धनी या निर्धन,
देव समान उन्हें जानना
धर्म-अर्थ से युक्त वचन
सुन, तात्पर्य समझ सास का
सम्मुख आकर हाथ जोड़, सीता
ने इस भांति कहा
आर्ये ! जो उपदेश आपका,
पालन उसका करूँगी मैं
विदित मुझे, सुना है पहले, कैसा
बर्ताव करूं स्वामी से
पूजनीया माँ ! आप मुझे,
असती के समान न जानें
नहीं विलग ज्यों प्रभा
चन्द्र से, वैसे ही मैं पतिव्रत से
बिना तार वीणा न बजती, बिन
पहिये का रथ न चलता
सौ पुत्रों की माता भी हो,
पति बिना न सुख मिल सकता
पिता, पुत्र, भाई तीनों ही,
परिमित सुख प्रदान करते हैं
पति अपरिमित सुखदाता, दोनों
लोक सफल होते हैं
पति का न सत्कार करेगी, कौन
स्त्री ऐसी होगी
श्रवण किया मैंने इसका, पातिव्रत्य
का अर्थ जानती
वचन मनोहर सुन सीता का,
कौसल्या के नयन भरे
अंत करण शुद्ध था उनका,
दुःख व हर्ष सहर्ष झरे
पिता को दुःख से न देखना, माता
से तब कहा राम ने
शीघ्र समाप्त होगा वनवास, चौदह
वर्ष बीत जायेंगे
निश्चित अभिप्राय कह उनसे,
राम ने फिर देखा उस ओर
साढ़े तीन सौ माताएँ थीं, उन
पर भी छाया था शोक
हाथ जोड़ उन माताओं से,
धर्मयुक्त यह बात कही
सदा साथ रहने के कारण, अन्जाने
में जो भूलें की
सबकी क्षमा माँगता हूँ मैं, विदा आप मुझको कर दें
सुन कर हुईं शोक से
व्याकुल, कर उठीं विलाप माताएँ
मुरज, पणव, मेघ आदि से, भवन
गूँजता जो रहता था
आर्तनाद से व्याप्त हुआ, दुखमय
अब प्रतीत होता था
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में उनतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ.
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