श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
द्वात्रिंशः सर्गः
सीतासहित श्रीराम का वशिष्ठपुत्र सुयज्ञ को बुलाकर उनके तथा उनकी पत्नी के लिए
बहुमूल्य आभूषण, रत्न और धन आदि का दान तथा लक्ष्मण सहित श्रीराम द्वारा
ब्राह्मणों, ब्रह्मचारियों, सेवकों, त्रिजट ब्राह्मण और सुह्र्दज्ज्नों को धन का
वितरण
कठ शाखा, कलाप शाखा के,
अध्येता ब्रह्मचारी जो
अध्ययन में ही रत रहते,
दूजा कार्य नहीं करते वो
अस्सी ऊंट लदे रत्नों से,
एक हजार बैल दिलवाओ
चना, मूँग, चावल से लदे,
दोसौ बैल और दिलवाओ
दही, घी के निमित्त उनको,
एक हजार गौएँ भी दो
मेखलाधारी ब्राह्मणों के दल
को, स्वर्ण मुद्राएँ दिलवा दो
माँ कौसल्या आनन्दित हों, इस
भांति करो तुम पूजन
आज्ञा मिलने पर राम की, दिया
दान ब्राह्मणों को धन
तत्पश्चात जो वहाँ खड़े थे, सेवक
जन आश्रित उनके
दी सांत्वना उन्हें बुलाकर,
गला रुंधा था अश्रुओं से
चौदह वर्षों तक चले जीविका,
इतना द्रव्य प्रदान किया
लक्ष्मण व उनके घर को, न
त्यागें, यह वचन लिया
सेवक दुःख से थे अति पीड़ित,
धनाध्यक्ष से कहा राम ने
जितना धन है सब ले आओ, सेवक
वहाँ लगे धन लाने
बहुत बड़ी राशि धन की, थी
दर्शनीय उस स्थल पर
बालक, बूढ़े, दीन-हीन को, बंटवा
दिया वह सारा धन
आस-पास के वन में तब,
त्रिजट नामके थे ब्राह्मण
देह का रंग पड़ा था पीला, नहीं
जीविका का था साधन
फाल, कुदाल, लिए हल वन में,
फल-मूल ढूँढा करते थे
तरुणी थी उनकी पत्नी, स्वयं
तो हो चले वृद्ध थे
छोटे बच्चों को लेकर तब,
पत्नी ने उनसे विनती की
फेंक हाल, कुदाल, मिलें, श्री
रामचन्द्र से वे शीघ्र ही
कुछ अवश्य ही मिल जायेगा,
बात सुनी पत्नी की जब यह
धोती फटी लपेटे तन पर,
ब्राह्मण वे तब गये मार्ग पर
भृगु और अंगिरा की भांति, जनसमुदाय
से हो गुजरे
राम-भवन के मध्य में
पहुंचे, नहीं किसी ने रोका उनको
कहा राम से मैं निर्धन हूँ,
कृपा कीजिये मुझ पर आप
पुत्र अनेक, नष्ट जीविका,
वन में होता मेरा वास
तब विनोद से कहा राम ने,
अनगिन गौएँ मेरे पास
दंड जहाँ तक फेंक सकेंगे, वहाँ तक की पा लेंगे आप
यह सुनकर बड़ी तेजी से, कमर
में धोती को लपेटा
लगा के सारी शक्ति अपनी,
डंडे को घुमाकर फेंका
सरयू के उस पार जा गिरा,
गौओं के गोष्ठ में डंडा
त्रिजट को हृदय से लगाया, दे
दीं वे गौएँ मंगवा
कहे वचन सांत्वना देते, थी विनोद
में बात कही
इसके लिए बुरा न मानें,
मांग लें, कुछ चाहते यदि
इसे जानने की थी इच्छा, तेज
आपका दुर्लंघ्य है
डंडा फेंकने हित इस हेतु, प्रेरित
किया आपको मैंने
सच कहता हूँ मैं आपको,
संकोच की बात नहीं है
सब ब्राह्मणों के हित है, जो
भी धन है पास मेरे
यश की वृद्धि ही करेगा,
विधि अनुसार दान देने से
पत्नी सहित त्रिजट मुनि तब,
शुभाशीष देने लगे
यथायोग्य सम्मान पूर्वक,
किया दान राम ने धन सब
कोई नहीं बचा वहाँ था, जो न
हुआ आदर से तृप्त
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में बत्तीसवाँ
सर्ग पूरा हुआ.
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