श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
एकोनचत्वारिंशः सर्गः
राजा दशरथ का विलाप, उनकी आज्ञासे सुमन्त्र का राम के लिए रथ जोतकर लाना,
कोषाध्यक्ष का सीता को बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण देना, कौसल्या का सीता को पतिसेवा
का उपदेश, सीता के द्वारा उसकी स्वीकृति तथा श्रीराम का अपनी माता से पिता के
प्रति दोष दृष्टि न रखने का अनुरोध करके अन्य माताओं से विदा माँगना
राजा दशरथ हुए अचेत, मुनि
वेश में देख राम को
दुःख से बोल न कोई निकला, न
ही देख सके वह उनको
दो घड़ी अचेत सा रहकर, होश उन्हें
जिस पल आया
करने लगे विलाप दुखी हो, चिन्तन
मन में श्रीराम का
शायद किसी पूर्वजन्म में, प्राणियों
की, की थी हिंसा
गौओं का उनके बछड़ों से,
अथवा तो विछोह कराया
इस कारण ही संकट आया, कैकेयी
द्वारा दुःख कितना
किन्तु मृत्यु न आती अब भी,
क्लेश सहन करने पर इतना
प्राण नहीं निकलते तब तक,
जब तक समय नहीं आता
अग्नि समान राम तेजस्वी, वल्कल धारण किये देखता
वर रूपी शठता के कारण,
स्वार्थ सिद्ध करने में रत
अति महान दुःख के भागी हैं,
कैकेयी के कारण ही सब
शिथिल हुईं इन्द्रियां सारी,
ऐसा कह अश्रु भर आये
हे राम ! कह हुए अचेत से, घड़ी बाद ये शब्द कहे
हे सुमन्त्र ! रथ ले आओ,
उतम घोड़े जुते हों जिसमें
जनपद से बाहर ले जाओ,
श्रीराम को बिठाके उसमें
श्रेष्ठ वीर पुत्र को स्वयं
ही, माता-पिता यदि वन भेजें
फल गुणों का यही है शायद, यही लिखा शास्त्रों में
राजा की आज्ञा धारण कर,
उत्तम रथ एक ले आये
सुवर्ण भूषित रथ तैयार है, हाथ
जोड़ कहा राजा से
देश काल के ज्ञाता नृप ने, बुला
कहा कोषाध्यक्ष को
चौदह वर्षों तक पर्याप्त
हों, वस्त्र और आभूषण लाओ
महाराज के यह कहने पर, सीता
को अर्पित की चीजें
वनवास हेतु उत्सुक थीं, धारण
किया उन्हें सीता ने
प्रातः काल का उगता सूरज,
ज्यों शोभित करता नभ को
करने लगीं सुशोभित सीता,
इसी तरह उस राजमहल को
कौसल्या ने तब सीता को, कसा
भुजाओं में अपनी
निज ह्रदय से उन्हें लगाया, मस्तक सूंघ कही ये वाणी
स्वागत व बहुत बहुत आभार कुलदीप जी !
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