श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
चतुस्त्रिंशः सर्गः
सीता और लक्ष्मण सहित श्रीराम का रानियों सहित राजा दशरथ के पास जाकर वनवास के
लिए विदा माँगना, राजा का शोक और मूर्छा, श्रीराम का उन्हें समझाना तथा राजा का
श्रीराम को हृदय से लगाकर पुनः मूर्छित हो जाना
मुक्त विघ्न और बाधा से, मार्ग तुम्हारा हो निर्भय
असम्भव है तुम्हें रोकना, धर्म स्वरूप तुम्हारा सत्य
किन्तु रात भर रह जाओ, माँ व मेरी हालत जान
दर्शन का सुख पालूं जिससे, एक रात रोको प्रस्थान
प्रातः काल चले जाना तुम, तृप्त हुए वस्तु से इच्छित
दुष्कर कार्य कर रहे हो तुम, मेरा प्रिय करने की खातिर
किंतु शपथ खाकर मैं कहता, नहीं प्रिय वनवास तुम्हारा
छिपी राख में आग की भांति, कैकेयी का अभिप्राय क्रूर था
विचलित किया इसीने उससे, जो अभीष्ट संकल्प था मेरा
प्रेरित कर वरदान के हेतु, मेरे साथ किया है धोखा
कुलोचित जो सदाचार है, इसने उसका नाश किया
जो वंचना इससे पायी, तुम चाहो पार उसी को करना
पिता को सत्यवादी बनाना, यही चाहते हो तुम श्रेष्ठ
नहीं कोई अचरज है इसमें, गुण, आयु दोनों में ज्येष्ठ
शोकाकुल पिता को सुनकर, कहा राम ने पीड़ा से
महाराज ! जो कुछ पाऊँगा, आज, मिलेगा कल कैसे
अच्छा होगा आज ही निकलूँ, सब कामनाओं के बदले
त्यागा इसे भारत के दे दें, सम्पन्न राष्ट्र धन-धान्य से
निश्चय नहीं बदल सकता अब, वरदायक श्रेष्ठ नरेश हे
देवासुर संग्राम में जो वर, दिए, उन्हें अब पूर्ण करें
कर पालन आज्ञा का आपकी, चौदह वर्ष रहूँगा वन में
नहीं कोई अन्यथा विचार, आप लायें अपने मन में
निज अथवा स्वजनों के सुख हित, इच्छा मुझे नहीं राज्य की
मान आपकी आज्ञा ही तो, ग्रहण की इसके अभिलाषा की
पीड़ा दूर आपकी हो, अश्रु नहीं बहायें आप
सागर नहीं क्षुब्ध होता है, करें न मर्यादा का त्याग
मुझे न इच्छा राज्य या सुख की, भोगों की या पृथ्वी की
स्वर्ग भी इच्छित नहीं है मुझको, न ही इच्छा है जीवन की
एक ही इच्छा मेरे मन में, बनें आप सत्यवादी
वचन न मिथ्या हो आपका, शपथ सत्य व शुभ कर्मों की
पल भर भी न रुक सकता अब, दुःख को भीतर ही दबा लें
कैकेयी को वचन दिया था, जाता उसको पालन करने
हमें देखने या मिलने हित, उत्कंठित आप न होवें
आनन्द से हम रहेंगे, शांत मृगों से भरे अरण्य में
देवों के भी देव पिता, जाता देव आपको जान
दुःख छोड़ें, मुझे देखंगे, चौदह वर्ष का हो अवसान
अश्रु बहाते कितने लोग, धैर्य बंधाएँ आप इन्हें
कर्तव्य अपना भुला क्यों, स्वयं ही इतने विकल हो रहे
नगर, राज्य या सारी पृथ्वी, छोड़ी आप भरत को दें
वचन आपका होगा पूर्ण, जाता हेतु वनवास के
आपकी आज्ञा के पालन में, मेरा मन जैसा लगता है
प्रिय पदार्थ में भी न लगता, लगता नहीं वैसा भोगों में
मेरे लिए जो दुःख आपको, दूर उसे अब हो जाने दें
नहीं चाहिए भोग कोई यदि, मिथ्यावादी आप कहाएं
फल-मूल का भोजन करता, देख के नदियों, पर्वतों को
सुखी रहूँगा वन में मैं, शांत करें आप भी मन को
श्रीराम के यह कहने पर, पुत्र-विछोह के संकट में खो
राजा ने उर से लगाया, गिरे भूमि पर वे अचेत हो
जड़ की भांति हुआ शरीर, देख सभी रानियाँ रो दीं
मुर्छित हुए सुमन्त्र भी रोकर, हाहाकार मचा चहुँ ओर !
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में चौंतीसवाँ
सर्ग पूरा हुआ.
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