Tuesday, April 12, 2016

सुमन्त्र के समझाने और फटकारने पर भी कैकेयी का टस से मस न होना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

पञ्चत्रिंशः सर्गः
सुमन्त्र के समझाने और फटकारने पर भी कैकेयी का टस से मस न होना

तत्पश्चात सारथि सुमन्त्र, सहसा उठकर खड़े हो गये
अमंगलकारी संताप से, क्रोध से कम्पित, दुखी हुए वे

देह, मुख की कांति बदल गयी, रक्तिम नयन, श्वासें लम्बी 
क्रोध से हाथ हाथ से मलते, दांत भींचते, वाणी तीखी

अशुभ व अनुपम वचन वज्र से, कैकेयी को किया प्रताड़ित
पति का ही जब त्याग कर दिया, कर्म कौन सा तुमसे बाधित

देवराज के सम अजेय जो, पर्वत से थिर रहने वाले
सागर सम जो क्षोभ रहित, दुःख देती उनको कर्मों से

राजा दशरथ पति तुम्हारे, पालक और हैं वर दाता
कोटि पुत्रों से बढ़कर होती, नारी हेतु पति की इच्छा

ज्येष्ठ पुत्र ही बनता राजा, राजा की मृत्यु होने पर
 इस कुल की यही परंपरा, तुम इसे मिटा देने को आतुर

राजा हो भरत करें शासन, हम जायेंगे किन्तु राम संग
ब्राह्मण नहीं निवास करेगा, मर्यादा यदि होगी भंग

क्या आनन्द मिलेगा तुमको, फिर ऐसा राज्य पाकर
अचरज होता है मुझको क्यों, भूमि न फटती अत्याचार पर

ब्रह्मर्षियों के शाप भयंकर, क्यों न तुमको भस्म कर रहे  
श्रीराम को बाहर करती, तुम पाषाणी का नाश कर रहे

आम काटकर कौन भला, नीम का सेवन करना चाहे
नीम को जो दूध से सींचे, नीम ना मीठा हो जाये

तुम भी अपनी माँ जैसी हो, जो अपने कुल स्वरूप थी
नीम से मधु नहीं टपकता, यही सत्य है कैकेयी

एक समय किसी साधु ने, उत्तम वर दिया पिता को
कैकय नृप लगे समझने, सभी प्राणियों की बोली को

शय्या पर लेटे थे एक दिन, जृम्भ की ध्वनि पड़ी कानों में
हँसी आ गयी सुनकर उसको, अभिप्राय जब आया समझ में

निकट ही उसी शय्या पर, सो रहीं थीं माँ तुम्हारी
राजा मेरी हँसी उड़ाते, यह समझ वह कुपित हो उठी

क्या है कारण इस हँसी का, यह जानना चाहती हूँ मैं
यदि बता दूँ कहा नरेश ने, मर जाऊँगा नहीं है संशय

यह सुनकर कहा रानी ने, मरो या जीयो, मुझे न मतलब
हँसी न फिर उड़ा सकोगे, शीघ्र ही बता दो कारण  

प्रिय रानी के यह कहने पर, राजा गया साधु के पास
रानी रहे या घर से जाये, नहीं उसे बताना बात

राजा ने उसे घर से निकाला, स्वयं कुबेर सा करें विहार
तुम भी पाप मार्ग पर जाकर, अनुचित करती हो व्यवहार

लोकोक्ति यह सत्य लग रही, सोलह आने आज मुझे
पुत्र पिता समान होते हैं, कन्याएं समान माता के

तुम न बनो ऐसी रानी, राजा को स्वीकार करो
पति की इच्छा को मानकर, जन समुदाय को शरण दो

पापपूर्ण विचार जो रखते, न उनके बहकावे में आओ
 लोक प्रतिपालक पति को, अनुचित कर्म में नहीं लगाओ

कमलनयन राजा दशरथ, दूर पाप से ही रहते
देवराज इंद्र के तुल्य, प्रतिज्ञा झूठी न करेंगे

श्रीराम ज्येष्ठ, उदार हैं, कर्मठ व स्वधर्म के पालक
जगत के रक्षक, बलशाली, होने दो इनका अभिषेक

राम यदि चले जायेंगे, निंदा होगी बड़ी तुम्हारी
तुम निश्चिन्त रहो कुशल से, अतः बनें युवराज राम ही

श्रीराम के सिवा न कोई, रह सकता अनुकूल तुम्हारे
महाराज वन को जायेंगे, पूर्वजों का स्मरण करके

इस प्रकार की विनती सुमन्त्र ने, किन्तु न विचलित हुई कैकेयी
कोई फर्क न पड़ा चेहरे में, न ही क्षोभ न कोई दुःख ही


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में पैंतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ


No comments:

Post a Comment