श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
चतुस्त्रिंशः सर्गः
सीता और लक्ष्मण सहित श्रीराम का रानियों सहित राजा दशरथ के पास जाकर वनवास के
लिए विदा माँगना, राजा का शोक और मूर्छा, श्रीराम का उन्हें समझाना तथा राजा का
श्रीराम को हृदय से लगाकर पुनः मूर्छित हो जाना
कमल नयन श्रीराम ने जब, सूत सुमन्त्र से कहे ये वचन
शीघ्र गये सुमन्त्र भीतर तब, करने दुखी राजा के दर्शन
लम्बी श्वासें खींच रहे थे, इन्द्रियां थीं कलुषित पीड़ा से
राहु ग्रस्त सूर्य की भांति, आग ढकी हो ज्यों राख से
जलशून्य तालाब समान, श्री विहीन लगते थे राजा
श्रीराम का चिन्तन करते, चित्त अति व्याकुल था उनका
महाप्राज्ञ सूत ने उनसे, हाथ जोड़कर की विनती
पहले आशीर्वाद भी दिया, अभ्युदय की कामना की
भय से व्याकुल मधुर शब्द तब, राजा दशरथ से बोले
सारा धन दान में देकर, मिलने आये पुत्र आपके
लेकर विदा अपने मित्रों से, दर्शन आपके करने आये
आज्ञा हो तो आयें यहाँ, इसके बाद वे वन जाएँ
राजोचित गुणों से सम्पन्न, सूर्य समान राम को देखें
नभ से निर्मल सिंधु गंभीर, यह सुनकर राजा बोले
यहाँ बुलाओं रानियों को भी, उनके संग उन्हें देखूंगा
तब सुमन्त्र ने बड़े वेग से, अंतः पुर में दी सूचना
स्वामी का आदेश मानकर, सब रानियाँ तब चल दीं
कौसल्या को घेर सभी वे, धीरे-धीरे आ पहुंची
अब मेरे पुत्र को लाओ, कहा सुमन्त्र से तब राजा ने
देख दूर से ही राम को, अपने आसन से दौड़े
घिरे हुए रानियों से वे, दुःख से अति ही पीड़ित थे
पृथ्वी पर गिर पड़े विकल, हुए मूर्छित वे दुःख से
राम-लक्ष्मण तेजी से चल, पहुंचे उन राजा के पास
इतने में ही राजभवन में, गूँज उठा था आर्तनाद
आभूषण की ध्वनि के मध्य, हा राम ! की गूँज उठी
सुनकर रुदन रो पड़े स्वयं, राम-लक्ष्मण व सीता भी
बिठा दिया पलंग पर मिलकर, महाराज को तीनों ने
हाथ जोड़कर राम ने कहा, चेत हुआ जब दो घड़ी में
स्वामी हैं प्रभु आप हमारे, तत्पर मैं वन जाने को
कृपा दृष्टि से देखें मुझे व, सीता सहित लक्ष्मण को
रोकना चाहा मैंने इनको, किन्तु यहाँ न रहना चाहें
वन जाने की दें आज्ञा, शोक त्याग कर आप हमें
ब्रहाजी ने ज्यों पुत्रों को, तप हेतु दी थी आज्ञा
शांत भाव से प्रतीक्षा करते, राजा ने राम से कहा
मोह में पड़ा बंधा हूँ मैं, कैकेयी के वर के कारण
मुझको कर लो कैद और, स्वयं राजा तुम जाओ बन
बातचीत में कुशल राम ने, हाथ जोड़कर कहे वचन
बनें रहें अधिपति पृथ्वी के, करूँगा मैं वन को ही गमन
चौदह वर्षों तक भ्रमण कर, पूर्ण प्रतिज्ञा कर आऊँगा
पुनः युगल चरणों में आपके, निज मस्तक झुकाऊँगा
सत्य के दृढ़ बंधन में, थे राजा दशरथ बंधे हुए
वन को जाएँ राम तुरंत, कैकेयी कर रही थी बाध्य
आर्तभाव से वे तब बोले, प्रिय पुत्र राम से, जाओ !
वृद्धि व कल्याण के हित तुम, पुनः लौट आने हित जाओ
जय मां हाटेशवरी...
ReplyDeleteआपने लिखा...
कुछ लोगों ने ही पढ़ा...
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...
इस लिये दिनांक 10/04/2016 को आप की इस रचना का लिंक होगा...
चर्चा मंच[कुलदीप ठाकुर द्वारा प्रस्तुत चर्चा] पर...
आप भी आयेगा....
धन्यवाद...
बहुत बहुत आभार कुलदीप जी !
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