श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
सप्तत्रिंश सर्गः
श्रीराम आदि का वल्कल-वस्त्र धारण, सीता के वल्कल धारण से रनिवास की स्त्रियों
को खेद तथा गुरु वसिष्ठ का कैकेयी को फटकारते हुए सीता के वल्कल-धारण का अनौचित्य
बताना
बात सुनी मंत्री की जब,
विनय के ज्ञाता कहा राम ने
भोगों का परित्याग कर चका,
क्या प्रयोजन है सेना से
निर्वाह होगा फल-मूल से,
छोड़ चका हूँ सब आसक्ति
भरत को अर्पित करता हूँ
मैं, मेरे लिए पर्याप्त चीर ही
गजराज का दान करे, पर रस्से
को रखना चाहे
नहीं है उचित ऐसा लोभ, क्यों
आसक्ति हो रस्से में
खंती और पिटारी ही अब,
उपयोगी हो सकती वन में
शर्म-लाज सब छोड़ चुकी थी,
कैकयी स्वयं लायी उन्हें
चीर लिए उसके हाथों से,
मुनियों के से वस्त्र धरे
वल्कल वस्त्र किये धारण तब,
इसी प्रकार लक्ष्मण ने
तब धर्मज्ञा जनक नंदिनी,
अपने लिए चीर देखकर
उसी प्रकार भयभीत हो गयीं,
मृगी ज्यों होती जाल देखकर
लज्जित हुईं वस्त्र लेकर
वह, नयनों में अश्रु भर आये
तेजस्वी पति से पूछा,
वनवासी कैसे चीर बाँधते
वल्कल एक गले में डाला,
दूजा लिए हाथ में वे
बस चुपचाप खड़ीं थीं वह,
स्वयं बांधा तब राम ने
सीता को वल्कल पहनाया, उनके
रेशमी वस्त्र के ऊपर
रोने लगीं देख रानियाँ,
आँखों में आँसू भरकर
हुईं खिन्न बोलीं राम से, न
सीता को वनवास मिला
तुम जब तक वन में रहोगे,
देख इसे हम रहें यहाँ
लक्ष्मण को संग ले जाओ,
किन्तु नहीं सीता हित वन
पूर्ण करो याचना हमारी, सफल
बने हमारा जीवन
माताओं की बातें सुन भी,
पहनाया सीता को वल्कल
पति समान शील था जिसका, उसे
देख गुरु हुए व्याकुल
कैकेयी से कहा उन्होंने, किया
उल्लंघन मर्यादा का
पैर अधर्म की ओर बढ़ाती, है
कलंक तू अपने कुल का
राजा को धोखा देकर अब, शील
का परित्याग किया
सीता वन नहीं जाएँगी, उनका
ही राज्य यह होगा
यह अर्धांगिनी हैं राम की,
हैं आत्मा श्रीराम की
उनकी जगह यही लेंगी अब, राज
सिंहासन पर बैठेंगी
वन को गयीं यदि जनक नन्दिनी,
हम भी साथ चले जायेंगे
सभी नागरिक, रक्षक सारे,
धन-दौलत भी ले जायेंगे
भरत और शत्रुघ्न दोनों, चीर
वस्त्र धारण कर लेंगे
वन में जाकर श्रीराम की,
दोनों मिल सेवा करेंगे
निर्जन व सूनी पृथ्वी का,
रह अकेली राज्य करना
दुराचारिणी, अहितकारी,
राज्य नहीं वह वन होगा
स्वतंत्र राष्ट्र बनेगा वह वन,
राम जहाँ निवास करेंगे
भरत यदि हैं पुत्र पिता के,
राज्य नहीं लेना चाहेंगे
पुत्रवत् बर्ताव भी करें,
ऐसा नहीं कदापि होगा
अप्रिय ही किया है तूने, प्रिय
करना चाहा भरत का
कोई ऐसा नहीं है जग में,
श्रीराम का जो न भक्त हो
तू आज ही देखेगी कि, पशु,
पक्षी, मृग जाते वन को
औरों की क्या बात वृक्ष भी,
उत्सुक संग चले जाने को
सीता से वल्कल ले उनको, दे
वस्त्र धारण करने को
राम का ही वनवास हुआ है,
सीता न वल्कल धरें
वस्त्रों से होकर आभूषित,
वन में यह निवास करें
सेवक और सवारी भी हों,
वस्त्र व उपकरण सारे
अप्रतिम मुनि वसिष्ठ के,
सीता ने ये वचन सुने
किन्तु प्रियतम पति समान ही, इच्छा थी वेश धरने की
विदेह नंदिनी, जनक दुलारी, चीर
धारण से नहीं विरत हुईं
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में सैंतीसवाँ
सर्ग पूरा हुआ.
No comments:
Post a Comment