Tuesday, December 6, 2011

आत्म निष्ठा का विधान


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि
   

आत्म निष्ठा का विधान

स्थावर-जंगम सबके भीतर, बाहर भी जो स्वयं को देखे
 ज्ञानस्वरूप नर वही मुक्त है, मुक्त हुआ जो हर उपाधि से

आत्मरूप जो सबको देखे, वही मुक्त है जगबंधन से
आत्म निष्ठा में रहे निरंतर, दृश्य छोड़ टिके द्रष्टा में

जो आसक्त हुए रत हैं, सदा पदार्थों के संचय में
मुक्त नहीं वे हो सकते, मग्न सदा दृश्य प्रपंच में

जब तक अहंकार ज्यादा है, नहीं वासना मिट सकती
एकाएक न नाश हो सके, जन्मों से चली आ रही

अहं बुद्धि ही मोहित करती, आवरण-विक्षेप शक्ति बढती
द्रष्टा, दृश्य पृथक जो देखे, दोनों स्वयं ही मिट जाती

ब्रह्म आत्मा का ऐक्य ही, अविद्या को जला देता है
अद्वैत को प्राप्त हुआ फिर, पुनः जगत न पा सकता है

आत्मज्ञान की सदनिष्ठा से, आवरण का नाश हो जाता
मिथ्या ज्ञान भी मिट जाता है, विक्षेप जनित दुःख खो जाता 

5 comments:

  1. आभार इस प्रस्तुति के लिए।

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  2. स्थावर-जंगम सबके भीतर, बाहर भी जो स्वयं को देखे
    ज्ञानस्वरूप नर वही मुक्त है, मुक्त हुआ जो हर उपाधि से

    आत्मरूप जो सबको देखे, वही मुक्त है जगबंधन से
    आत्म निष्ठा में रहे निरंतर, दृश्य छोड़ टिके द्रष्टा में

    सम्पूर्ण ब्रह्म ज्ञान्।

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  3. ब्रह्म आत्मा का ऐक्य ही, अविद्या को जला देता है
    अद्वैत को प्राप्त हुआ फिर, पुनः जगत न पा सकता है

    सम्पूर्ण ब्रह्म ज्ञान्.......!

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  4. शिल्पा जी, मनोजजी, पूनम जी व वन्दना जी, आप सभी का बहुत बहुत आभार!

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