Friday, June 17, 2011

भगवद्गीताका भावानुवाद, पंचमोऽध्यायः




कर्मसन्यासयोग

कर्मों का सन्यास श्रेष्ठ है, या हे केशव ! कर्म योग ही
दोनों में से जो उचित हो, मेरे हित तुम कहो उसे ही

दोनों हैं कल्याण के हेतु, कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से
किन्तु सुगम है कर्मयोग ही, सहज, सरल है साधन में

राग रहित कर्मयोगी जो, नहीं किसी का अहित चाहता
नहीं लिया सन्यास हो उसने, सन्यासी मैं उसे मानता

मूढ़ भेद करते दोनों में, दोनों का फल एक ही जान
ज्ञानी जन कोई भेद न करते, दोनों का फल ईश्वर मान

जो एकत्व देखता उनमें, वही यथार्थ देखने वाला
ज्ञानयोग व कर्मयोग भी, परम धाम देने वाला

ज्ञान योग का ले आश्रय, कर्तापन का त्याग है दुर्लभ
ईश मनन कर उसमें टिकना, कर्मयोगी को सदा सुलभ

मन जिसका वश में है अपने, इन्द्रियजीत, विशुद्ध हुआ  
सबमें आत्म रूप ही देखे, कर्मों से नहीं रहे बंधा

जाना जिसने तत्व ज्ञान को, ज्ञान योगी ऐसा जाने
कुछ न कर्ता मैं जग में, इन्द्रियों को ही कर्ता माने

कर्ण सुन रहे, नयन देखते, गंध नासिका ग्रहण कर रही
इन्द्रियां ही विषयों में वरतें, स्पर्श अनुभव त्वचा ले रही

खाता-पीता, आता-जाता, लेता श्वास और तजता
मौन हुआ वह यही विचारे, इन्द्रियाँ ही कर्ता धर्ता

जो कर अर्पण कर्म प्रभु में, तज आसक्ति कर्म करे
जल में कमल के पत्ते नाईं, सदा पाप से दूर रहे

योगी जन तजें आसक्ति, अन्तःकरण की शुद्धि चाहें
देह से कर्मों को करते, किन्तु न उनका फल चाहें

कर्मों के फल त्यागे जिसने, वही परम शांति को पाए
कामना युक्त कर्म जो करता, उर उसका अशांत हो जाये



3 comments:

  1. राग रहित कर्मयोगी जो, नहीं किसी का अहित चाहता
    नहीं लिया सन्यास हो उसने, सन्यासी मैं उसे मानता

    अत्यंत आनंदमयी है ..सुखमयी है ...ये अनुभूति ...
    आभार.

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  2. योगी जन तजें आसक्ति, अन्तःकरण की शुद्धि चाहें
    देह से कर्मों को करते, किन्तु न उनका फल चाहें

    ...बहुत सुन्दर भावानुवाद...आभार

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  3. कर्मों के फल त्यागे जिसने, वही परम शांति को पाए
    कामना युक्त कर्म जो करता, उर उसका अशांत हो जाये
    .....bahut badhiyaa

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