जीवन की अब शाम हो चली
कितनी पीड़ा, कितने दर्द
कितने जख्म छिपाए भीतर,
ऊपर से हँसता है मानव
डर-डर कर जीता है भीतर !
इक कांटा तो चुभता हर पल
‘मैं भी कुछ हूँ’ मुझे सराहो,
इस होने को कुछ तो अर्थ दो
दुनिया की यह रीत निबाहो !
होश संभाला जब से उसने
स्वयं को सदा माँगते पाया,
औरों की नजरों में खुद को
कुछ साबित करना ही भाया !
अपनी इक तस्वीर बनायी
मन मंदिर में उसे सजाया,
जरा ठेस जो लगी कभी भी
दिल आंसुओं से भर आया !
जीवन की अब शाम हो चली
खेल वही पुराना चलता,
कुछ न कुछ करके दिखला दें
न होने से मन न भरता !
न जाने क्या मिल जायेगा
नाम यदि रह भी जायेगा,
संतोषी यदि हुआ न अंतर
चैन न स्वर्ग भी दे पाएगा !
अनिता निहालानी
२९ अप्रैल २०११
अनीता जी ..
ReplyDeleteन जाने क्या मिल जायेगा
नाम यदि रह भी जायेगा,
संतोषी यदि हुआ न अंतर
चैन न स्वर्ग भी दे पाएगा !
बिलकुल सही कहा आपने...बस मानव चित्त...ना जाने कौन सा अर्थ ढूँढता है ...बहुत सुन्दर सहज रचना बधाई आपको
बहुत अच्छे विचार, धन्यवाद आपको...
ReplyDeleteइक कांटा तो चुभता हर पल
ReplyDelete‘मैं भी कुछ हूँ’ मुझे सराहो,
इस होने को कुछ तो अर्थ दो
दुनिया की यह रीत निबाहो !
इंसान के मन की इच्छा को सही कहा है ....स्वयं के नाम की बहुत कामना रहती है ...
लेकिन क्या मिल जायेगा ???
न जाने क्या मिल जायेगा
नाम यदि रह भी जायेगा,
संतोषी यदि हुआ न अंतर
चैन न स्वर्ग भी दे पाएगा !
सुन्दर रचना ..
आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (30.04.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.blogspot.com/
ReplyDeleteचर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)
न जाने क्या मिल जायेगा
ReplyDeleteनाम यदि रह भी जायेगा,
संतोषी यदि हुआ न अंतर
चैन न स्वर्ग भी दे पाएगा !
ये कही है बात्…………संतोष से बढकर कोई धन नही। इतना समझ ले तो जीवन सरल और सहज हो जाये।
marmik rachana hridaya ko chhuti huyi ---
ReplyDeleteहोश संभाला जब से उसने
स्वयं को सदा माँगते पाया,
औरों की नजरों में खुद को
कुछ साबित करना ही भाया !
shnehil kavy -srijan ke liye dhanyavad ji .
जीवन की अब शाम हो चली
ReplyDeleteखेल वही पुराना चलता,
कुछ न कुछ करके दिखला दें
न होने से मन न भरता !
बहुत सुन्दर एवं भावपूर्ण रचना ! एक यही कसक मन में लिये जीवन बीत जाता है कि हमें भी कभी समझा जाये, सराहा जाये ! मेरी बधाई स्वीकार करें !
bahut sunder bhavabhivyakti ....!!
ReplyDeleteshant komal nek bhavnaon se otprot
बहुत सुन्दर शब्द रचना.
ReplyDeleteबहुत आभार.
जीवन की अब शाम हो चली
ReplyDeleteखेल वही पुराना चलता,
कुछ न कुछ करके दिखला दें
न होने से मन न भरता ...
Bahut bhaav may rachna hai .... lajawaab ...
इक कांटा तो चुभता हर पल
ReplyDelete‘मैं भी कुछ हूँ’ मुझे सराहो,
इस होने को कुछ तो अर्थ दो
दुनिया की यह रीत निबाहो !
होश संभाला जब से उसने
स्वयं को सदा माँगते पाया,
औरों की नजरों में खुद को
कुछ साबित करना ही भाया !
और इसी तरह पूरी जिन्दगी निकल जाती है..
कभी अपने होने का अर्थ खोजने में और कभी खुद को
औरों की नज़र में कुछ साबित करने में..!!
सुन्दर अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteसुंदर रचना
ReplyDeleteविवेक जैन vivj2000.blogspot.com