Thursday, April 28, 2011

जीवन की अब शाम हो चली


जीवन की अब शाम हो चली

कितनी पीड़ा, कितने दर्द
कितने जख्म छिपाए भीतर,
ऊपर से हँसता है मानव
डर-डर कर जीता है भीतर !

इक कांटा तो चुभता हर पल
‘मैं भी कुछ हूँ’ मुझे सराहो,
इस होने को कुछ तो अर्थ दो
दुनिया की यह रीत निबाहो !

होश संभाला जब से उसने
स्वयं को सदा माँगते पाया,
औरों की नजरों में खुद को
कुछ साबित करना ही भाया !

अपनी इक तस्वीर बनायी
मन मंदिर में उसे सजाया,
जरा ठेस जो लगी कभी भी
दिल आंसुओं से भर आया !

जीवन की अब शाम हो चली
खेल वही पुराना चलता,
कुछ न कुछ करके दिखला दें
न होने से मन न भरता !

न जाने क्या मिल जायेगा
नाम यदि रह भी जायेगा,  
संतोषी यदि हुआ न अंतर
चैन न स्वर्ग भी दे पाएगा !

अनिता निहालानी
२९ अप्रैल २०११  

13 comments:

  1. अनीता जी ..


    न जाने क्या मिल जायेगा
    नाम यदि रह भी जायेगा,
    संतोषी यदि हुआ न अंतर
    चैन न स्वर्ग भी दे पाएगा !


    बिलकुल सही कहा आपने...बस मानव चित्त...ना जाने कौन सा अर्थ ढूँढता है ...बहुत सुन्दर सहज रचना बधाई आपको

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  2. बहुत अच्छे विचार, धन्यवाद आपको...

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  3. इक कांटा तो चुभता हर पल
    ‘मैं भी कुछ हूँ’ मुझे सराहो,
    इस होने को कुछ तो अर्थ दो
    दुनिया की यह रीत निबाहो !

    इंसान के मन की इच्छा को सही कहा है ....स्वयं के नाम की बहुत कामना रहती है ...

    लेकिन क्या मिल जायेगा ???
    न जाने क्या मिल जायेगा
    नाम यदि रह भी जायेगा,
    संतोषी यदि हुआ न अंतर
    चैन न स्वर्ग भी दे पाएगा !

    सुन्दर रचना ..

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  4. आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (30.04.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.blogspot.com/
    चर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)

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  5. न जाने क्या मिल जायेगा
    नाम यदि रह भी जायेगा,
    संतोषी यदि हुआ न अंतर
    चैन न स्वर्ग भी दे पाएगा !

    ये कही है बात्…………संतोष से बढकर कोई धन नही। इतना समझ ले तो जीवन सरल और सहज हो जाये।

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  6. marmik rachana hridaya ko chhuti huyi ---

    होश संभाला जब से उसने
    स्वयं को सदा माँगते पाया,
    औरों की नजरों में खुद को
    कुछ साबित करना ही भाया !

    shnehil kavy -srijan ke liye dhanyavad ji .

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  7. जीवन की अब शाम हो चली
    खेल वही पुराना चलता,
    कुछ न कुछ करके दिखला दें
    न होने से मन न भरता !
    बहुत सुन्दर एवं भावपूर्ण रचना ! एक यही कसक मन में लिये जीवन बीत जाता है कि हमें भी कभी समझा जाये, सराहा जाये ! मेरी बधाई स्वीकार करें !

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  8. bahut sunder bhavabhivyakti ....!!
    shant komal nek bhavnaon se otprot

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  9. बहुत सुन्दर शब्द रचना.

    बहुत आभार.

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  10. जीवन की अब शाम हो चली
    खेल वही पुराना चलता,
    कुछ न कुछ करके दिखला दें
    न होने से मन न भरता ...

    Bahut bhaav may rachna hai .... lajawaab ...

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  11. इक कांटा तो चुभता हर पल
    ‘मैं भी कुछ हूँ’ मुझे सराहो,
    इस होने को कुछ तो अर्थ दो
    दुनिया की यह रीत निबाहो !

    होश संभाला जब से उसने
    स्वयं को सदा माँगते पाया,
    औरों की नजरों में खुद को
    कुछ साबित करना ही भाया !

    और इसी तरह पूरी जिन्दगी निकल जाती है..
    कभी अपने होने का अर्थ खोजने में और कभी खुद को
    औरों की नज़र में कुछ साबित करने में..!!

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  12. सुन्दर अभिव्यक्ति!

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