Tuesday, April 12, 2011

क्या हो मन पीला हो जाये

क्या हो मन पीला हो जाये

पीला पत्ता डाल से बिछुड़ा
ले गयी पवन उड़ाये
क्यों न मन पीला हो जाये !

हुआ पीला पत्ता बैरागी
निज घर की ममता त्यागी,
नव पल्लव के स्वागत में
उड़ा खुशी से बड़भागी !

वीतरागी यदि मन पाखी भी
मुक्त गगन में दौड़ लगाये
क्या हो मन पीला हो जाये ?

हल्का होकर वन-वन डोले
अम्बर कभी धरा सँग होले
स्वयं मिटकर जीवनक्रम में
नव निर्माण की भाषा बोले !

सुख-दुःख की भट्टी में तपकर
जग से जगातीत हो जाये
क्यों न मन पीला हो जाये ?

अनिता निहालानी
१२ अप्रैल २०११

7 comments:

  1. स्वयं मिटकर जीवनक्रम में
    नव निर्माण की भाषा बोले !

    उक्त पंक्तियाँ बहुत ही सुन्दर लगी, साधुवाद.

    ReplyDelete
  2. हल्का होकर वन-वन डोले
    अम्बर कभी धरा सँग होले
    स्वयं मिटकर जीवनक्रम में
    नव निर्माण की भाषा बोले !
    भावों को अच्छी अभिव्यक्ति , बधाई

    ReplyDelete
  3. हल्का होकर वन-वन डोले
    अम्बर कभी धरा सँग होले
    स्वयं मिटकर जीवनक्रम में
    नव निर्माण की भाषा बोले !
    सुन्दर शब्द विन्यास के साथ सुन्दर भाव !

    ReplyDelete
  4. बहुत सुन्दर रचना| धन्यवाद|

    ReplyDelete
  5. क्‍या आपकी जानकारी में कोई ऐसा व्‍यक्ति है, जो असमिया विज्ञान कथाओं के बारे में जानकारी रखता हो। यदि हो तो, कृपया zakirlko@gmail.com पर मेल करने की कृपा करें।

    ReplyDelete
  6. हल्का होकर वन-वन डोले
    अम्बर कभी धरा सँग होले
    स्वयं मिटकर जीवनक्रम में
    नव निर्माण की भाषा बोले !


    सुख-दुःख की भट्टी में तपकर
    जग से जगातीत हो जाये
    क्यों न मन पीला हो जाये ?
    Bahut hi badhiya vchitrankan

    ReplyDelete