Tuesday, April 19, 2011

बहो, बस बहो


बहो, बस बहो

वीराने वन में, जलधार बन बहो
सोंधे सावन में, फुहार बन बहो !

उन्मुक्त पवन सँग, पत्तों से तुम तिरो
अनंत गगन में, विहंग से फिरो

विभक्त जगत में, सम्पूर्ण हो रहो
बहो, बस बहो !

बांधे न कोई तीर, ऐसी नाव तुम बहो
रोके न कोई राह, बने फकीर तुम बहो !

सिमटो न किसी तौर, निस्सीम हो रहो
रीते अधर में मुक्त, बस शून्य ही कहो

अनंत की हो चाह, अमरत्व ही गहो
बहो, बस बहो !

अनिता निहालानी
१९ अप्रैल २०११  

3 comments:

  1. अनंत की हो चाह, अमरत्व ही गहो
    बहो, बस बहो !
    ruko mat bas baho

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  2. बहुत सुन्दर और सार्थक सन्देश ....

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  3. अनीता जी

    बहुत सुन्दर सन्देश ...


    बांधे न कोई तीर, ऐसी नाव तुम बहो
    रोके न कोई राह, बने फकीर तुम बहो !


    बहुत सुन्दर रचना ..बधाई

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