इस जग का खालीपन भर दें
जाने कितने कोष छुपाये हम थक जाते
खो जाये ना, इस भय से मुस्कान छिपाते !
क्यों न मन को खाली कर दें
इस जग का खालीपन भर दें !
खोल झरोखों को अन्तर के
नया उजाला उनमें भर दें !
अनगिन निधियां छिपी हुई हैं मानव मन में
अंधियारों में बीज ढके हैं मानस भू में !
क्यों न स्वयं को हल्का कर दें
सारी निधियां यही लुटा दें
धूप, हवा, जल के छीटों से
क्यों न उनमें फूल खिला दें !
इक पावन सी पहले भीतर जगह बना लें
अपने हिस्से की खुशियाँ फिर जग से ले लें !
बस थोड़ा सा उद्यम करके
पल-पल मन को चेतन रख के
कुछ न कुछ इस जग को देके
हम रह सकते कमल सरीखे !
अनिता निहालानी
७ अप्रैल २०११
जाने कितने कोष छुपाये हम थक जाते
ReplyDeleteखो जाये ना, इस भय से मुस्कान छिपाते !
क्यों न मन को खाली कर दें
इस जग का खालीपन भर दें !
बहुत गहन सकारात्मक सोच..बहुत प्रेरणादायक सुन्दर अभिव्यक्ति...आभार
बस थोड़ा सा उद्यम करके
ReplyDeleteपल-पल मन को चेतन रख के
कुछ न कुछ इस जग को देके
हम रह सकते कमल सरीखे !मन को चेतन रखने की कला ही तो सीखनी है.
एक प्रेमभरी कविता.
बहुत खूब !शुभकामनायें आपको !!
ReplyDeleteबस थोड़ा सा उद्यम करके
ReplyDeleteपल-पल मन को चेतन रख के
कुछ न कुछ इस जग को देके
हम रह सकते कमल सरीखे
बहुत सुन्दर गीत ...
कुछ न कुछ इस जग को देके
ReplyDeleteहम रह सकते कमल सरीखे
शुभकामनायें .....
अनीता जी ,
ReplyDeleteआपकी रचनायें मुझे अपने बहुत करीब लगती हैं.. खुशकिस्मत हूँ जो आपका ब्लॉग मिला मुझे ...
बस थोड़ा सा उद्यम करके
पल-पल मन को चेतन रख के
कुछ न कुछ इस जग को देके
हम रह सकते कमल सरीखे !
बहुत सुन्दर ....
bhut sunder shabd rachna hai...
ReplyDeletekamal ki rachna hai .
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