श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
अष्टात्रिंशः सर्गः
राजा दशरथ का सीता को वल्कल धारण कराना अनुचित बताकर कैकेयी को फटकारना और
श्रीराम का उनसे कौसल्या पर कृपादृष्टि रखने के लिए अनुरोध करना
थीं सनाथ जो देवी सीता, चीर
वस्त्र जब लगीं पहनने
हुईं अनाथ जान तब सब जन,
राजा को लगे धिक्कारने
दुखी हुए उस कोलाहल से,
जीवन, यश की इच्छा त्यागी
गर्म श्वास खींच वे बोले,
नहीं है उचित यह कैकेयी
वल्कल धारण कर के सीता, वन जाने
के योग्य नहीं
सुकुमारी बालिका है यह, सदा
सुखों में ही पली
राजा जनक की यह पुत्री,
नहीं किसी का कुछ बिगाड़ती
किंकर्तव्यविमूढ़ भिक्षुकी,
बन, धारण कर चीर खड़ी
वल्कल यह धारण करेगी, ऐसी
नहीं प्रतिज्ञा की थी
वस्त्र अलंकारों से
सम्पन्न, सीता वन को जा सकती
जीवित रहने योग्य नहीं मैं,
क्रूर प्रतिज्ञा कर डाली
सीता को चीर पहनाकर, करती है
तू भी नादानी
बांस का पुष्प सुखाये उसको,
मुझे भस्म मेरा प्रण करता
श्रीराम ने यदि किया हो,
क्या सीता ने अपराध किया
मृगनयनी कोमल स्वभाव की,
तुझे कौन सा दुःख देती
पाप कमाया राम के वन से,
क्यों और पातक बटोरती
श्रीराम के वन जाने की, ही,
मैंने प्रतिज्ञा की थी
सीता को वल्कल पहना, नर्क
की ही तू इच्छा करती
सिर नीचा कर दशरथ कहते,
श्रीराम तब यह बोले
कौसल्या अब वृद्ध हो चलीं,
इनका अब सम्मान करें
उच्च उदार स्वभाव है इनका,
निंदा नहीं आपकी करतीं
ऐसा संकट कभी न देखा, दुःख
समुद्र में यह डूबेंगी
पुत्रशोक का दुःख न भोगें,
पूज्य पति से हों सम्मानित
मेरा चिन्तन करके भी यह,
आश्रय पा रहें यह जीवित
इंद्र समान तेजस्वी राजा, यह
डूबी हैं पुत्र शोक में
ऐसा न हो प्राण त्याग दें, सुख
से रखें आप इन्हें
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में अड़तीसवाँ
सर्ग पूरा हुआ.
No comments:
Post a Comment