श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि
आत्मानुभव का उपदेश
बंधन, मोक्ष, तृप्ति और चिंता, स्वयं ही जाने जाते हैं
स्वास्थ्य लाभ या भूख लगी हो, दूजे अनुमान लगाते हैं
श्रुति सम गुरु भी बोध कराते, ब्रह्म का केवल शब्द ज्ञान से
स्वयं को ही अनुभव करना है, प्रभु कृपा से दिव्य भान से
निज अनुभव जब हो जाता है, सिद्ध हुआ साधक हो हर्षित
निर्विकल्प हुआ वह साधक, रहे आत्मा में ही स्थित
जीव और जगत सारा यह, ब्रह्म ही है कुछ और नहीं
अद्वितीय उस ब्रह्म में रहना, मोक्ष यही कुछ और नहीं
बोधोपल्ब्धि
गुरु के शब्द सुने शिष्य ने, चित्त और इन्द्रियाँ हुईं शांत
आत्मस्वरूप में टिक जाता वह, निश्चल वृत्ति से हो स्थित
परब्रह्म में चित्त समाहित, परमानंद को पाकर हर्षित
बुद्धि खो गयी ज्ञान को पाकर, कहने लगा शिष्य हो चकित
विषयों में न रस कोई है, न यह और न वह मैं मानूँ
कैसा और कहाँ से आया, परम हर्ष यह कैसे जानूँ
जैसे ओला गल जाता है, सागर की जल राशि में
वैसे ही है लीन हुआ, मन आनंद सिंधु अंश में
जीव और जगत सारा यह, ब्रह्म ही है कुछ और नहीं
ReplyDeleteअद्वितीय उस ब्रह्म में रहना, मोक्ष यही कुछ और नहीं
इतने जटिल विषय को आप कितने सरल शब्दों में व्यक्त कर देतीं हैं, मैं तो अभिभूत हूं!