श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि
आत्म ज्ञान का फल
सम्यक सिद्धि आत्म ज्ञान में, पाकर योगी हर्षित होता
नित्य आनंद रस को पाता, बाहर-भीतर एक हो रहता
वैराग्य से बोध जगेगा, बोध से उपरामता विषयों से
उपरति से आनंद प्रकटता, चित्त शान्त हो सब समयों में
यदि न मिली आत्म शांति, उपरति होना तब निष्फल है
बोध भी व्यर्थ चला जायेगा, यदि उपरति न उसका फल है
वैराग्य का क्या अर्थ है, यदि बोध जगा न भीतर
विषयों से हटना है तृप्ति, यही परम आनंद मनोहर
प्रारब्ध वश जो दुःख मिल जाये, विचलित न होता ज्ञानी
अज्ञान में कर्म किये जो, ज्ञान हुए होते सब सानी
विद्या हमें छुडाती असत् से, अविद्या प्रबल किये जाती
यदि असत् में अब भी रूचि है, विद्या फल न दे पाती
हृदय ग्रंथि अज्ञान रूप जो, नाश हुआ जिसका ज्ञानी में
मिटी कामना जग से सुख की, विषय फंसाते न मोह में
भोग्य वस्तु लख लोभ जगे न, वैराग्य तब प्रकट हुआ है
अहंकार न रहता जिसमें, बोध भी उसका प्रबल हुआ है
भीतर वृत्ति शांत हुई है, उपरति सधी है ज्ञानी में
शांत हुआ आनंद में डूबा, बंधन काटे हैं योगी ने
वैराग्य से बोध जगेगा, बोध से उपरामता विषयों से
ReplyDeleteउपरति से आनंद प्रकटता, चित्त शान्त हो सब समयों में
यदि न मिली आत्म शांति, उपरति होना तब निष्फल है
बोध भी व्यर्थ चला जायेगा, यदि उपरति न उसका फल है
वैराग्य का क्या अर्थ है, यदि बोध जगा न भीतर
विषयों से हटना है तृप्ति, यही परम आनंद मनोहर
सटीक व सार्थक सत्य्।
वन्दना जी, आपका अभिनन्दन व आभार!
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