Thursday, October 21, 2010

कितनी सुषमा भर दी तुमने
सृष्टि के इस महायज्ञ में,
नित नवीन उत्सव की बेला
हास्य रुदन औ विरह मिलन में !

तुम प्रेम प्रभु ! मैं प्रेम पथिक
सर्वस्व तुम्हीं को सौंप दिया,
जग चलता अपनी राह मगर
मैंने न दूजा सौदा किया !

तुम आओगे यह आशा है
अन्तर पट खोल दिए अपने,
आतुरता बढ़ती ही जाती
कब पूर्ण हुए सारे सपने ?

1 comment:

  1. आपकी सारी कविताओं में गहरा भाव है जो ह्रदय को धीरे से झंकृत करता है . शुभकामनायें

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