Wednesday, October 13, 2010

भावांजलि

व्यर्थ ही हम बोझिल हो फिरते
तुच्छ कामना से इस मन की
सुंदर जग को आहत करते,
ज्योतिर्मय को हो समर्पित
क्यों नही निर्भार रहते ?

जिसका न कोई संगी साथी
उसका है वह जगन्नाथ,
निर्बल का बल, नाथ दीन का
सरल चित्त का भोलानाथ !

श्रम सीकर भूमि भिगोते
श्रमिकों का बलिदान जहाँ,
हरि वहीं ग्वालों सँग फिरते
कृषकों ने बोया धान जहाँ !

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