श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि
उपदेश का उपसंहार (शेष भाग)
नट जैसे पुरुष ही रहता, स्वांग करे या रहे अयुक्त
ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म ही है, उपाधि युक्त हो या हो मुक्त
जहाँ-तहाँ ज्यों पत्र गिरे हों, सूखे हुए किसी वृक्ष के
उसका तन भी दग्ध हुआ है, चाहे गिरे किसी स्थल पे
वृक्ष का सूखा पत्ता चाहे, कहीं भी गिरे न पड़ता अंतर
नाली, नदी, शिवालय में या, गिरे किसी चबूतरे पर
सत्स्वरूप में हुआ वह स्थित, देह भाव से मुक्त हुआ वह
कहीं भी त्यागे देह, न अंतर, देशकाल न देखे वह
हृदय की अविद्या ग्रंथि, जिसकी नष्ट हुई वह मुक्त
देह त्याग नहीं है मोक्ष, रहता वह आनंद से युक्त
वृक्ष के पत्ते, पुष्प, डाल सम, मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ मिटते
आनंद रूप आत्मा अमर है, उसे न देखा किसी ने मरते
आत्मा का लक्षण प्रज्ञानघन, उसकी सत्यता को बतलाता
अविनाशी है यह आत्मा, उपाधि का ही नाश है होता
जैसे अन्न अग्नि बन जाता, जब अग्नि में उसे डालते
देह आदि भी ज्ञानाग्नि में, भस्म हुए परम हो जाते
सूर्य उदित होने पर जैसे, अंधकार का नाश हो जाता
ज्ञान हुए से दृश्य प्रपंच, ब्रह्म में ही लीन हो जाता
घट के नाश हुए से जैसे, घटाकाश, महाकाश बनता
लय होता जब उपाधि का, ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म हो जाता
एक हुआ दूध मिल दूध, तेल, तेल से मिलकर एक
आत्मा में मिल ज्ञानी आत्मा, जल, जल से मिलकर हो एक
एक अखंड सत्ता शेष हो, वही विदेह-कैवल्य कहलाता
ब्रह्म भाव को प्राप्त हुआ जो, भव बंधन से मुक्त हो जाता
ब्रह्म-आत्मा के ऐक्य से, दग्ध हुए अज्ञान, अविद्या
ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म हुआ फिर, जन्म न फिर होता है उसका
बहुत ही बढि़या।
ReplyDeleteसदा जी, आपका स्वागत है तथा आभार भी !
Deleteयह श्रृंखला ब्लोगजगत की धरोहर साबित होगी।
ReplyDeleteमनोज जी, आपका सहयोग इसी तरह मिलेगा आशा है, अंतिम भाग अगली पोस्ट में है. पढ़ें.
Deleteबहुत सुन्दर। आभार!
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