श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि
उपदेश का उपसंहार (शेष भाग)
चलते-फिरते, उठते-बैठते, सोते-जागते रहे स्वयं में
आत्मा में ही रमा करे वह, चाहे हो किसी दशा में
जिसने आत्मस्वरूप को जाना, आत्मतत्व की सिद्धि करता
देश काल से परे हुआ वह, नियम, लक्ष्य सब कुछ ही तजता
‘यह घट है’ इसको जो जाने, किस नियम की उसे अपेक्षा
मैं ब्रह्म हूँ, इस ज्ञान को, ज्ञानी जन स्वयं ही कहता
जगत प्रकाशित है सूर्य से, असत् पदार्थ भासते सत् से
उस सत् को कौन प्रकाशे, सत् प्रकाशित होता स्वयं से
वेद, शास्त्र, प्रमाण व प्राणी, अर्थवान हैं जिस परम से
कौन प्रकाशित करेगा उसको, परम प्रकाशित है स्वयं से
स्वयंप्रकाश, अनंत शक्ति, अप्रमेय, अनुभव स्वरूप यह
जान इसे ही मुक्त हुआ, ज्ञानी जन हुआ है धन्य
विषय प्राप्त होते हैं उसको, सुखी-दुखी न होता ज्ञानी
न आसक्त न हुआ विरक्त, स्वयं में ही रस पाता ज्ञानी
आत्मा के आनंद का रस पा, वह स्वयं में ही क्रीड़ा करता
ममता, अहं से मुक्त हुआ वह, निज स्वरूप में ही रमता
जैसे बालक मग्न हुआ सा, खेल में ही लगा रहता
भूख और नींद को भुला के, खिलौने से तृप्त हो रहता
चिंता व दीनता छूटी, मुक्त हुआ सा वह विचरे
अभय हुए वह घूमे वन-वन, सारा जग अपना माने
दिशा वस्त्र है, धरा बिछौना, परब्रह्म में क्रीड़ा करता
सदा सुखी हो तृप्त हुए वह, मुक्त जगत में घूमा करता
बालवत् हुआ वह ज्ञानी, देह का मात्र आश्रय लेता
आसक्ति न रहती उसमें, चिह्न न कोई प्रकट करता
दिशा वस्त्र है, धरा बिछौना, परब्रह्म में क्रीड़ा करता
ReplyDeleteसदा सुखी हो तृप्त हुए वह, मुक्त जगत में घूमा करता
sarthak Rachna ke liye badhai
जगत प्रकाशित है सूर्य से, असत् पदार्थ भासते सत् से
ReplyDeleteउस सत् को कौन प्रकाशे, सत् प्रकाशित होता स्वयं से
बड़ी ही ज्ञानवर्धक श्रृंखला है यह।
aabhaar
ReplyDeleteआप सभी का स्वागत व आभार !
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