श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि
उपदेश का उपसंहार (शेष भाग)
चैतन्य ही वस्त्र है उसका, सहज हुआ डोला करता
सर्वात्म भाव से हो स्थित, आत्मतुष्ट रहा करता
कहीं मूढ़, कहीं विद्वान, कहीं ठाठबाट से रहता
कहीं भ्रांत, कहीं शांत, निश्चल कहीं पड़ा रहता
सम्मानित हो या अपमानित, उसे भेद न पड़ता कोई
कहीं ज्ञात कहीं अज्ञात, सदा संतुष्ट रहे ज्ञानी
नित्य तृप्त, महा बलवान, समदर्शी ही वह कहलाता
सब कुछ करता हुआ अकर्ता, फल भोगे पर रहे अभोक्ता
देह होने पर हुआ विदेही, सर्वव्यापी होकर परिछिन्न
प्रिय अप्रिय नहीं है कोई, शुभ अशुभ न कोई दिन
देह अभिमानी को ही छूते, सुख-दुःख अथवा शुभ-अशुभ
देह पृथक है जो यह जाने, उसे न छूता कोई फल
तथ्य नहीं जानते जो जन, रवि को राहू ग्रस्त मानते
देह से परे हुए ज्ञानी को, अज्ञानी जन नहीं जानते
मुक्त पुरुष का देह आभासी, जैसे केंचुल सर्प की होती
प्राण वायु से हो संचालित, उसमें आसक्ति नहीं रहती
फल की वह चिंता न करता, आत्मस्वरूप में स्थित रहता
श्रेष्ठ ब्रह्मवेत्ताओं में वह, शिव स्वरूप ही कहलाता
नहीं अभाव है उसको कोई, न ही ज्ञान शून्य सुप्त सम
जीवित है तो मुक्त सदा है, मर कर ब्रह्म में होता लीन
आपका हर बार आभार ही प्रकट कर सकती हूँ | इतनी अमूल्य knowledge जो शेयर कर रही हैं आप
ReplyDeleteआभार
शिल्पा जी, स्वागत और आगे भी इसी तरह आती रहें.
Deleteउत्तम...
ReplyDeleteसमीर जी, स्वागत व आभार!
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