श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि
उपदेश का उपसंहार
तत्व बोध को प्राप्त हुए, उस शिष्य को गुरु ने देखा
प्रसन्न हुए चित्त से बोले, मुखड़े पर थी स्मित रेखा
नेत्रवान को रूप ही दिखता, जहाँ नजर वह ले जाये
ब्रह्म ज्ञानी को इस जग में, ब्रह्म ही ब्रह्म नजर आये
ब्रह्म प्रतीति का प्रवाह है, जग यह सत स्वरूप ब्रह्म
शांत चित्त हो, आत्म दृष्टि से, हर अवस्था केवल ब्रह्म
परमानंद वह रस अनुभव है, तज विषय, न कोई अर्थ
बुद्धिमान आनंद चुनेगा, जग का ताप उसे है व्यर्थ
पूर्ण चंद्रमा जब दिखता हो, चित्र लिखित को देखे कौन
असत पदार्थ न तृप्ति देते, उनसे सुख पायेगा कौन
दुःख का नाश न होता जग से, अद्वय से आनंद बरसता
तृप्त हुआ तू इस अनुभव से, आत्मनिष्ठ हो पा समरसता
तू ही तू फैला सब ओर, कोई नहीं सिवाय तेरे
आत्मा के आनंद को पाले, काल से परे का अनुभव कर ले
ज्यों आकाश में नगर कल्पना, आत्मा भी निर्विकल्प है
है अखंड बोध स्वरूप, मिथ्या उसमें हर विकल्प है
अद्वितीय तू, आनन्दमय, परम मौन व परम शांति पा
ब्रह्म भाव से युक्त हुआ रह, निज स्वरूप के रस को पा
जिसने स्वयं को जान लिया है, स्वानंद रस उसे मिलता है
मौन प्राप्त होता है उसको, हर वासना का क्षय होता है
जिसने स्वयं को जान लिया ----होता है |
ReplyDeleteसुन्दर पंक्ति और अच्छी रचना |
आशा
आशा जी, आभार!
Deleteतू ही तू फैला सब ओर, कोई नहीं सिवाय तेरे
ReplyDeleteआत्मा के आनंद को पाले, काल से परे का अनुभव कर ले
आभार!
जिसने स्वयं को जान लिया है, स्वानंद रस उसे मिलता है
ReplyDeleteमौन प्राप्त होता है उसको, हर वासना का क्षय होता है
सत्य वचन ... अपने आप को जानना इस संसार में सबसे कठिन कार्य है ...
आभार इस रस गंगा के लिए ...
आप सभी का आभार!
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