श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि
आत्म-अनात्म विवेक
परम पिता की शुद्ध कृपा का, जब साधक पर नीर बहेगा
बंधन घोर अविद्या का, विवेक खड्ग से तभी कटेगा
कोटि कर्म करके भी साधक, इस बंधन को काट न सकता
व्यर्थ अस्त्र-शस्त्र हैं सारे, ज्ञान खड्ग से ही यह कटता
सुने हुए में निश्चय करता, स्वधर्म में हो प्रतिष्ठित
चित्त शुद्ध होता है उसका, परमात्मा में होता स्थित
जल से ही उत्पन्न होती है, ज्यों तालाब पे छाई काई
जल को ही ढक लेती है, जिससे जल न पड़े दिखाई
ऐसे ही यह सत् आत्मा, स्वयं ही अहं को उत्पन्न करता
अज्ञान से ढका हुआ यह, स्वयं को ही नजर न आता
काई को यदि कोई हटा दे, शुद्ध नीर पी प्यास बुझाये
पंच कोष के पार जा सके, आत्मा का वह दर्शन पाए
बंधन यदि काटना चाहे, आत्म-अनात्म का करे विवेक
स्वयं को सत् चिद् आनंद जाने, रहे प्रसन्न वह मानव नेक
मूँज से जैसे सींक पृथक कर, उपयोगी हम उसे बनाते
द्रष्टा से दृश्य पृथक कर, आत्म भाव में मुक्त कहाते
आपको गोवर्धन अथवा अन्नकूट पर्व की हार्दिक मंगल कामनाएं,
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteमूँज से जैसे सींक पृथक कर, उपयोगी हम उसे बनाते
ReplyDeleteद्रष्टा से दृश्य पृथक कर, आत्म भाव में मुक्त कहाते
वाह ...
आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करती बहुत अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteआपको सपरिवार दीपावली व नववर्ष की शुभकामनाएं !
सत् चिद् आनंद का ज्ञान ही परमानन्द है!
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति!
aap bahut acchha kaam kar rahi hain yah :)
ReplyDeletethanks
:)
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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