Friday, July 22, 2011

नवमोऽध्यायः राजविद्याराजगुह्ययोग (अंतिम भाग)



नवमोऽध्यायः
राजविद्याराजगुह्ययोग (अंतिम भाग)

श्रद्धायुक्त सकाम भक्त जो, अन्य देवों की पूजा करते
वे भी अंततः मुझे ही पूजें, उचित विधि नहीं अपनाते

मैं ही भोक्ता सर्व यज्ञों का, मैं ही स्वामी हूँ उनका 
वे न जानें परम तत्व को, पुनर्जन्म होता उनका

पितृ पूजक, पितृ लोक को, देव पूजक देव ही पाते
भूतों के भी हैं उपासक, भूतों को ही वे नर पाते

पत्र, पुष्प, जल, फल, कुछ भी, प्रेम से जो अर्पण करता
शुद्ध हृदयी उस भक्त से वह, मैं स्वीकार किया करता

हवन, दान, तप जो भी करे तू, या कोई भी कर्म करे
भोजन रूप में ग्रहण करे जो, सब मेरे अर्पण कर दे

जिसके छोटे-बड़े कर्म सब, प्रभु को अर्पण होते हैं
युक्तचित्तवाले योगी वे, बंधन में न फंसते हैं

में हूँ सब भूतों में व्यापक, प्रिय-अप्रिय कोई न होता  
किन्तु भजे जो प्रेम से मुझको, मैं उसमें वह मुझमें बसता

यदि कोई दुराचारी भी, भक्त हुआ मुझको भजता है
दृढ़ संकल्प किया है जिसने, वह भी साधु बन सकता है

भक्ति से हुआ परिवर्तित, जो धर्म मार्ग पर चल पड़ता
हे अर्जुन, यह अटल सत्य है, मेरा भक्त सुरक्षित रहता

स्त्री, वैश्य, शुद्र, या पापी, चांडाल भी यदि कोई हो
मेरी शरण में जो भी आता, परम गति को प्राप्त हुआ वो

पुण्यशील, राजर्षि, ब्राह्मण, मेरी शरण में जो भी आते
कोई नहीं है संशय इसमें, परम गति वे सब हैं पाते

क्षणभंगुर यह मानव तन है, नित्य निरंतर मुझको भज
मुझमें मनवाला प्रेमी हो, निश्चित प्राप्त मुझे ही कर  

3 comments:

  1. बहुत सुन्दर और ज्ञानप्रद...आभार

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  2. भक्ति भाव पैदा करती अनमोल पंक्तियाँ !
    आभार !

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