दशमोऽध्यायः
विभूतियोग (अंतिम भाग)
सर्वभक्षी काल भी मैं हूँ, जन्म सभी का मुझसे जान
कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, क्षमा, धृति भी मान
सामवेद का गीत वृह्त्साम, गायत्री छंदों में हूँ
सब मासों में मार्गशीर्ष हूँ, ऋतुराज वसंत भी हूँ
छलियों में जुआ भी मैं हूँ, तेजवान का तेज है मुझसे
साहस, शौर्य, विजय भी मैं हूँ, सत्व सात्विकों का मुझसे
वासुदेव वृष्णियों में हूँ, अर्जुन वीर पांडवों में
व्यासदेव मुनियों में श्रेष्ठ, शुक्राचार्य हूँ कवियों में
दमन के साधन में दंड हूँ, विजयाकांक्षी की नीति
मैं ही मौन रहस्यों में हूँ , बुद्धिमानों की मैं ही मति
जनक बीज हूँ इस सृष्टि का, मुझसे परे नहीं है कोई
चर-अचर जो भी इस जग में, मेरे सिवा न उसका कोई
अंत नहीं है विभूतियों का, संक्षेप से तुझे कहा
एक अंश मात्र से उपजा है, सौंदर्य इस महा जगत का
जहाँ-जहाँ भी पड़े दिखाई, कांति, सौंदर्य हे अर्जुन !
वहाँ–वहाँ मुझको ही देख, मेरा ही है सभी सृजन
क्या करेगा बहुत जान के, इतना ही तू जान ले पार्थ
मेरे एक अंश में स्थित, योगशक्ति है मेरी अद्भुत
वाह बहुत ही सु्न्दर वर्णन किया है।
ReplyDeleteगीतासार का सुन्दर सार- संछेप
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