सप्तमोऽध्यायः
ज्ञानविज्ञानयोग (अंतिम भाग)
बुद्धिहीन जन मुझे न जानें, अविनाशी जो परम ईश्वर
मनुज भाव से मुझे देखते, मैं हूँ मन-इन्द्रियों से पर
मैं अदृश्य बना रहता हूँ, योगमाया का ले आश्रय
मैं अजन्मा, अविनाशी हूँ, नहीं जानता जन समुदाय
चले गए जो अब भी हैं, त्तथा भविष्य में जो होंगे
मैं जानता सब भूतों को, अश्रद्धालु ये नहीं जानते
इच्छा और द्वेष उपजाते, सुख-दुःख आदि द्वंद्व जगत में
घने मोह से हो आवृत, अज्ञानी रहते व्याकुल से
किन्तु सदा है श्रेष्ठ आचरण, निष्कामी, द्वन्द्वातीत जो
इच्छाओं से मुक्त हुए नर, भजते हैं मुझ परमेश्वर को
आकर शरण में करें प्रार्थना, जरा, मरण से मुक्ति चाहें
वे ही जानते परम ब्रह्म को, अध्यात्म कर्मों को जानें
आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (09.07.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at
ReplyDeleteचर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)
सरल भाषा में गीता के गहन ज्ञान की बहुत सुन्दर प्रस्तुति..आभार
ReplyDeletesundar prastuti, sundar bhav,badhai
ReplyDeleteअद्भुत,
ReplyDeleteविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
बहुत सुंदर, कुछ ज्ञान की बातें हो गई आपके ब्लाग पर । मन भी शुद्ध हो गया।
ReplyDeleteआभार
गीता के गहन ज्ञान की बहुत सुन्दर प्रस्तुति.
ReplyDeleteआकर शरण में करें प्रार्थना, जरा, मरण से मुक्ति चाहें
ReplyDeleteवे ही जानते परम ब्रह्म को, अध्यात्म कर्मों को जानें
gyan ki dhara ..bahti anvarat ....