नवमोऽध्यायः
राजविद्याराजगुह्ययोग
राजविद्याराजगुह्ययोग
दोषदृष्टि नहीं है तुझमें, हे अर्जुन ! केशव बोले
परम गोपनीय विषय कहूँगा, मुक्त करेगा जो तुझे
सब विद्याओं का राजा, विज्ञान सहित ज्ञान यह उत्तम
है शाश्वत, गुप्त, अति पावन, श्रेष्ठ, धर्मयुक्त और सुगम
कर सुखपूर्वक इसका पालन, परम गोपनीय है यह ज्ञान
आत्मा की अनुभूति कराता, धर्म का यह अनुपम सिद्धांत
जिनकी श्रद्धा नहीं है इसमें, मुझको प्राप्त नहीं होते
मृत्यु रूप इस भंवर जगत में, वे सदा भ्रमते रहते
निराकार मुझ परमात्मा से, जग सारा यह व्याप्त यद्यपि
संकल्प मात्र से हैं सब मुझमें, मैं न उनमें हूँ तदापि
वे सब न मुझमें स्थित है, मेरी योगशक्ति है अद्भुत
मैं व्याप्त, भर्ता हूँ सबका, फिर भी उनसे रहूँ अलिप्त
जैसे वायु सदा गगन में, वैसे सब प्राणी हैं मुझमें
लिप्त नहीं होता आकाश, सदा मुक्त रहता पवन से
कल्पांत में सारे प्राणी, मेरी प्रकृति में ही समाते
नए कल्प के आदिकाल में, पुनः मुझसे रचे जाते
कर्मो के अनुसार मैं उनको, प्रकृति द्वारा पुनः पुनः रचता
निज स्वभाव से बंधे हुए वे, पुनः उन्हें यहाँ भेजता
किन्तु सदा आसक्ति रहित मैं, उदासीनवत् ही वर्तता
नहीं बांधते कर्म मुझे वे, मैं उनसे अलिप्त ही रहता
मेरी अध्यक्षता में प्रकृति, सर्व जगत को है रचती
सृष्टि चक्र यह घूम रहा है, प्रकृति स्वयं कुछ न करती
मेरी अध्यक्षता में प्रकृति, सर्व जगत को है रचती
ReplyDeleteसृष्टि चक्र यह घूम रहा है, प्रकृति स्वयं कुछ न करती
ज्ञान गंगा से प्रवाहित नदिया ..
लेती जब-जब हिलोर ...
सखीरी ..नाचत मन का मोर ...
निराला ही रसास्वादन होता है आपकी रचनाएँ पढ़कर ....!!
आभार..
अत्यंत सुन्दर एवं बाव्परक अनुवाद. संग्रह करने और मनन करने योग्य. उनके लिए विशेष उपयोगी जो संस्कृत भाषा को कम जानते हैं या नहीं जानते हैं. अमूल्य कृति.आभार प्रस्तुति के लिए.
ReplyDeleteपठनीय, संग्रहणीय!
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दरता से उल्लेख कर रही है आप्……………आभार्।
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