दशमोऽध्यायः
विभूतियोग (शेष भाग)
सत्य मानता वचन आपके, जो कुछ आप मुझे हैं कहते
लीलामय स्वरूप आपका. देव, असुर दोनों न जानते
हे भूतेश, जगत्पते, भूतभावन, हे पुरुषोत्तम !
स्वयं ही तुम स्वयं को जानते, देव देव, हे पुरुष परम !
आप स्वयं ही कह सकते हैं, दिव्य विभूतियों का वर्णन
व्याप्त हो रहे जिनके द्वारा, इस अखिल ब्रह्मांड में हर क्षण
कैसे चिंतन करूं आपका, कैसे मैं तुमको जानूँ
किन रूपों में ध्याऊं तुमको, केशव मैं कैसे पाऊँ
निज शक्ति व परम विभूति, सविस्तार मुझे कहिये
तृप्त नहीं होता मन मेरा, सुनकर अमृत वचन तुम्हारे
मुख्य-मुख्य रूपों का वर्णन, सुन मेरे मुख से हे अर्जुन !
है असीम वैभव मेरा, संभव नहीं सुनाना पूर्ण
जो सबके अंतर में बसता, परमात्मा मुझको ही जान
आदि, मध्य, अंत भी मैं हूँ, हे अर्जुन तू मुझको मान
आदित्यों में विष्णु हूँ मैं, सूर्य ज्योतियों में प्रचंड
मरुतों में मरीचि हूँ मैं, नक्षत्रों में पावन चन्द्र
सामवेद वेदों में हूँ मैं, देवताओं का राजा मान
इन्द्रियों में मन हूँ मैं, जीवों में चेतना जान
रुद्रों में शंकर भी मैं हूँ, यक्ष, राक्षसों में कुबेर
वसुओं में अग्निदेव हूँ, पर्वतों में हूँ सुमेरु
पुरोहितों में बृहस्पति हूँ, कार्तिकेय सेनानायकों में
सागर हूँ जलाशयों में, महर्षियों में भृगु भी हूँ मैं
वाणी में ओंकार हूँ, यज्ञों में जप मुझको जान
अचल, अडिग जो भी भू पर, उनमें मुझे हिमालय जान
वृक्षों में पीपल का वृक्ष, देवर्षियों में नारद मुनि मैं
गन्धर्वों में चित्ररथ हूँ, कपिल मुनि सिद्धों में मैं
शस्त्रों में वज्र शस्त्र हूँ, कामधेनु गौओं में जान
संतति उत्पत्ति का हेतु, कामदेव भी मुझको जान
दशम स्कन्ध का बहुत सुन्दर चित्रण किया है।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर शब्दचित्रण , बेहतर प्रस्तुति
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