Thursday, December 17, 2015

श्रीराम का लक्ष्मण को समझाते हुए अपने वनवास में दैव को ही कारण बताना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

द्वाविंशः सर्गः
श्रीराम का लक्ष्मण को समझाते हुए अपने वनवास में दैव को ही कारण बताना और अभिषेक की सामग्री को हटा लेने का आदेश देना 

जिस दैव ने कैकेयी को, ऐसी बुद्धि की प्रदान
वन भेजना मुझे चाहती, प्रेरित करता उसे विधान

विफल मनोरथ कर पीड़ा दूँ, मेरे लिए नहीं यह उचित
दैव को ही तुम कारण समझो, जो मनोभाव हुआ विपरीत

माताओं के प्रति कभी भी, भेद न उपजा मेरे मन में
कैकेयी ने भी तो पहले, अंतर नहीं किया पुत्रों में

वन में मुझे भेजने हेतु, शब्द जो वह लायी उपयोग
कठिन उन्हें उच्चारित करना, साधारण जन न करें प्रयोग

दूजा कौन सा कारण होगा, इस घटना में सिवा दैव के
श्रेष्ठ गुणों से जो युक्त थी, ऐसी बातें कहती कैसे

अचिंतनीय विधान दैव का, न कोई उसको बदल सके
निश्चय ही प्रेरणा से उसकी, उलटफेर हुआ भाग्य में

सुख-दुःख आदि फल कर्मों के, उसके ही विधान से मिलते
कारण जिनका समझ न आता, दैव के ही कर्म कहलाते

नियम त्याग देते तपस्वी, प्रेरित होकर ही दैव से
मर्यादा से भ्रष्ट हुये वे, काम-क्रोध के वश में होते

अकस्मात जो सर पर आये, कार्य विफल कर दे जो पहला
है अवश्य विधान दैव का, इसमें नहीं है दोष किसी का

मन स्थिर हुआ है मेरा, इस तात्विक बुद्धि द्वारा
अभिषेक में विघ्न हुआ पर, दुःख-संताप नहीं हो रहा  

तुम भी कर अनुकरण इसका, दुःख शून्य अब हो जाओ
राज्याभिषेक के लिए रचा जो, आयोजन यह बंद कराओ  

अभिषेक के लिये संजोकर, रखे गये हैं जल कलश जो
तापस व्रत के संकल्प हित, उनसे ही मेरा स्नान हो

अथवा तो है क्या जरूरत, मंगल द्रव्यमय इस जल की
निज हाथ से गया निकाला, साधक होगा वह जल ही

चिंता नहीं करो लक्ष्मण, लक्ष्मी के इस उलटफेर में
राज्य-वन दोनों समान हैं, बल्कि लाभ है वन जाने में

विघ्न का कारण छोटी माता, नहीं करो तुम शंका ऐसी
पिता भी कारण नहीं हैं इसमें, दैव की ही इच्छा थी ऐसी

 इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में बाईसवाँ सर्ग पूरा हुआ.



No comments:

Post a Comment