श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
एकविंशः सर्गः
लक्ष्मण का रोष, उनका श्रीराम को बलपूर्वक राज्य पर अधिकार कर लेने के लिए
प्रेरित करना तथा श्रीराम का पिताकी आज्ञा के पालन को ही धर्म बताकर माता और
लक्ष्मण को समझाना
नर्क तुल्य कष्ट पाओगे, ऐसा
होने पर हे पुत्र !
है समान ब्रह्महत्या के, दुखी
हुआ पा जिसे समुद्र
देख दुखी मा कौसल्या को,
धर्मयुक्त कहे वचन राम ने
चरणों में तुम्हारे झुकता, करना
चाहता सुखी तुम्हें मैं
किन्तु नहीं है शक्ति
मुझमें, करूं अवज्ञा मैं पिता की
पालन करने उनकी आज्ञा, जाना
चाहता वन को ही
वनवासी विद्वान् कन्डु मुनि,
गौ वध अधर्म जानते
पिता वचन के पालन हेतु, यह
कर्म भी कर डालते
राजा सगर के पुत्र हुए हैं,
अपने ही इस कुल में पहले
पित्राज्ञा से धरा खोदते,
बुरी तरह से मारे गये थे
जमदग्नि पुत्र परशुराम ने,
पिता की आज्ञा को माना
फरसे से अपनी माता का, वन
में गला काट डाला था
इन जैसे और बहुत से,
देवतुल्य मानवों ने भी
कर विचार न अन्य कोई, पिता
की आज्ञा ही मानी
कायरता को त्याग इसलिए,
पिता का हित-साधन करूंगा
नहीं नवीन धर्म यह कोई,
पूर्वजों की राह चलूँगा
जो सबके करने योग्य है, वही
मैं करने को जाता हूँ
धर्म से भ्रष्ट न कोई होता,
कुछ अयोग्य नहीं करता हूँ
कहकर अपनी माता से यह,
लक्ष्मण से यह कहा राम ने
परम स्नेह जो मेरे प्रति है,
उसको भी जानता हूँ मैं
हो पराक्रमी, धैर्यवान भी,
दुर्धुर्ष तेज का भी है ज्ञान
माँ को है महान दुःख जो, कारण
उसका सुनो लक्ष्मण
नहीं जानती अभिप्राय मेरा, सत्य
व शम के विषय में
धर्म श्रेष्ठ है संसार में,
सत्य प्रतिष्ठित है धर्म में
धर्म आश्रित वचन पिता का,
इससे ही परम उत्तम है
प्रतिज्ञा करके पालन की,
वचन तोड़ना अति अधम है
पिता के कहने से कैकेयी ने,
वन जाने की आज्ञा दी है
नहीं उल्लंघन कर सकता मैं, यही
धर्म दृष्टि कहती है
केवल क्षात्र धर्म को माने,
ओछी बुद्धि का त्याग करो
त्याग कठोरता हो धर्म आश्रित,
मेरे कहे अनुसार चलो
सौहार्द वश कहकर ऐसा, माता
को प्रणाम किया
दो आज्ञा वन जाने की, हाथ
जोड़कर उन्हें कहा
पूर्वकाल में राजर्षि
ययाति, स्वर्ग से भूतल पर आये
लौट आऊँगा मैं अयोध्या, उसी
प्रकार पुनः वन से
स्वस्ति वाचन तुम कराओ,
प्राणों की शपथ खा कहता
धरो शोक को अंतर में ही,
वनवास से मैं लौटूंगा
पिता की आज्ञा में रहना है,
तुम्हें, मुझे, सीता, सबको ही
मन का दुःख मन में दबा लो,
रख दो यह अभिषेक सामग्री
धर्मानुकूल सुन बात राम की,
व्यग्रता, आकुलता से मुक्त
देवी कौसल्या होश में आयीं,
जैसे पुनः हो जीवित, मृत
जैसे पिता तुम्हारे गुरुजन,
वैसे ही तो हूँ मैं भी
वनगमन आज्ञा नहीं देती, क्यों
करते हो मुझे दुखी
व्यर्थ है जीवन बिना
तुम्हारे, पूजा व अमृत भी व्यर्थ
दो घड़ी भी साथ तुम्हारा, है देने वाला सारे सुख
जय मां हाटेशवरी....
ReplyDeleteआप ने लिखा...
कुठ लोगों ने ही पढ़ा...
हमारा प्रयास है कि इसे सभी पढ़े...
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना....
दिनांक 09/12/2015 को रचना के महत्वपूर्ण अंश के साथ....
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की जा रही है...
इस हलचल में आप भी सादर आमंत्रित हैं...
टिप्पणियों के माध्यम से आप के सुझावों का स्वागत है....
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
कुलदीप ठाकुर...
आभार कुलदीप जी
Deleteबेहतरीन रचना.....बहुत बहुत बधाई....
ReplyDeleteस्वागत व बहुत बहुत आभार !
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