श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
विंश सर्गः
राजा दशरथ की अन्य रानियों का विलाप, श्रीराम का कौसल्याजी के भवन में जाना और
उन्हें अपने वनवास की बात बताना कौशल्या का अचेत होकर गिरना और श्रीराम के उठा
देने पर उनकी और देखकर विलाप करना
एक ही शोक सताता उसको, संतान के न होने का
मात्र मानसिक शोक यही, और नहीं कोई दूजा होता
पति के प्रभुत्व काल में, जयेष्ठ पत्नी जो सुख पाती
नहीं मिला है कभी पूर्व में, सोचा था अब पा लूँगी
इस आशा में जीती आयी, किन्तु अब भय है भारी
होकर जयेष्ठ भी सौतों से, दुख ही तो पाती आयी
शायद अन्त नहीं इस दुख का, पति से भी सम्मान न मिला
कैकेयी की दासी से भी, कभी अधिक समझा न गया
मेरी सेवा में जो रहता, वह भी उसको नहीं निभाता
कैकेयी के पुत्र को देख, वह भी चुप धारण कर लेता
क्रोधी कैकेयी के मुख को, कैसे देख सकूँगी मैं
कटु वचन जो सदा बोलती, तिरस्कृत रहूँगी मैं
सत्रह वर्ष बीत गये हैं, उपनयन को हुए तुम्हारे
आशा यही लगाये बैठी, दुःख मिट जायेंगे अब सारे
जरावस्था में अब आकर, तिरस्कार नहीं सह सकती
चन्द्र समान तुम्हारे मुख को, देखे बिन नहीं रह सकती
तुम्हें यदि चले जाना है, व्यर्थ ही थे मेरे उपवास
बड़े कष्ट से पालन-पोषण, देवों की पूजा और ध्यान
निश्चय ही है अति कठोर, यह प्रतीत मुझे होता
सुन बिछोह की बात तुम्हारे, हृदय फटा नहीं जाता
वर्षाकाल का नूतन जल जब, जा किनारों से टकराता
फट जाता कगार नदी का, किन्तु नहीं मेरा उर फटता
निश्चय ही यम के भी घर में, नहीं जगह है हित मेरे
सिंह मृगी को ले जाता ज्यों, यम न चाहे प्राण मेरे
लोहे सा कठोर हृदय है, न फटता न टुकड़े होता
निश्चय ही बिना काल के, नहीं मरण किसी का होता
पुत्र के सुख हित जो भी मैंने, व्रत, दान संयम साधे थे
दुःख की बात अधिक यही है, सारे ही वे व्यर्थ हो गये
ऊसर में बोया ज्यों बीज, निष्फल हुआ है तप वह सारा
हे रघुनन्दन ! बिना तुम्हारे, व्यर्थ ही होगा जीवन मेरा
दुर्बल होने पर भी जैसे, गौ पीछे जाती बछड़े के
उसी तरह मैं साथ तुम्हारे, वन की तरफ चलूँगी मैं
आने वाले दुःख को देख, करें विलाप कौसल्या भारी
बंधन में ज्यों देख पुत्र को, बिलख रही किन्नरी कोई
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में बीसवाँ
सर्ग पूरा हुआ.
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