श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
द्वाविंशः सर्गः
श्रीराम का लक्ष्मण को
समझाते हुए अपने वनवास में देव को ही कारण बताना और अभिषेक की सामग्री को हटा लेने
का आदेश देना
पीड़ा थी लक्ष्मण के मन में,
क्रोध और रोष भी भारी
आँखें फाड़े देख रहे थे,
जैसे कोई पीड़ित हाथी
मन को वश में रखने वाले,
निर्विकार राम बोले तब
सुह्रद, प्रिय, हितैषी था
जो, उस भाई से कहे वचन
धीरज का आश्रय लो तुम,
क्रोध, शोक को दूर करो
अपमान का भाव त्याग कर, उर
में अपने हर्ष भरो
अभिषेक की यह सामग्री,
शीघ्र हटा दो इसे यहाँ से
कार्य करो ऐसा ही अब तुम,
बाधक न हो वनगमन में
राज्यभिषेक के हेतु अब तक,
जो भी था उत्साह तुम्हारा
इसे रोकने में लगा दो, वन
गमन में भी तुम सारा
मेरे अभिषेक के कारण, हो
रहा दुःख जिसके मन में
शंका न हो उस माता को, करो उपाय
अब तुम ऐसे
हो संदेह से दुःख माता को, सहन
नहीं इसको कर सकता
दो घड़ी भी इस बात की, नहीं
उपेक्षा ही कर सकता
जानबूझ कर या अनजाने, मुझको
याद नहीं आता
छोटा सा अपराध भी किया,
माताओं का या पिता का
पिता सदा ही रहते आये,
सत्यवादी व पराक्रमी भी
परलोक का भय समाया, रहता उनके
मन में भी
भय दूर हो जाये उनका, वही काम
मुझे है करना
यदि अभिषेक गया न रोका, वचन
न पूरा उनका होगा
मुझे सदा संतप्त करेगा, उनके
अंतर का संताप
इन्ही कारणों से हे भाई !,
जाऊं वन राज्य को त्याग
कृत कृत्य अब हो जाएगी, कैकेयी
मेरे जाने से
हो निश्चिन्त और निर्भय वह,
भरत का अभिषेक करावे
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