श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
विंश सर्गः
राजा दशरथ की अन्य रानियों का विलाप, श्रीराम का कौसल्याजी के भवन में जाना और
उन्हें अपने वनवास की बात बताना कौशल्या का अचेत होकर गिरना और श्रीराम के उठा
देने पर उनकी और देखकर विलाप करना
उधर पुरुष सिंह राम ज्यों निकले, आर्तनाद प्रकटा भीतर से
अंतः पुर की राज स्त्रियाँ, व्याकुल हो कहती थीं दुख से
बिना पिता की आज्ञा के भी, स्वतः कार्य करते रक्षक बन
वन को जायेंगे राम वे, अंतः पुर आश्रय रघुनन्दन
माँ समान ही सदा मानते, कुपित कभी न होते थे
नहीं दिलाते क्रोध किसी को, रूठों को मना लेते थे
राजा की मति मारी गयी क्या, बड़े खेद की बात हुई ये
राम का यह परित्याग कर रहे, हैं विनाश पर तुले हुए
राजा को ऐसे वचनों से, सभी रानियां कोस रही थीं
बछड़ों से बिछुड़ी ज्यों गौएँ, उच्च स्वर से क्रन्दन करतीं
अंतः पुर का आर्तनाद सुन, दशरथ लज्जित हुए अति
पुत्रशोक से हो संतप्त, सिमट गये बिछौने में ही
श्रीराम जो थे जितेन्द्रिय, स्वजनों के दुःख से हो पीड़ित
गज सम दीर्घ श्वास खींचते, माँ के भवन गये भाई संग
एक परम पूजित वृद्ध को, वहाँ द्वार पर बैठे देखा
अन्य जनों ने, वहाँ खड़े जो, उन्हें देख जयकार किया
पहुंचे जब दूजी ड्योढ़ी में, वेदज्ञ ब्राह्मण वहाँ थे
तीजी पर स्त्रियाँ खड़ी थीं, कर प्रणाम बढ़े जब आगे
हर्षित हो वे गयीं महल में, माता को संदेश दिया
रात्रि जागरण करके वह, करती थीं विष्णु की पूजा
वस्त्र रेशमी पहन हो हर्षित, व्रत परायण वह होकर
अग्नि में देती आहुति, मन्त्रों का उच्चारण कर
देवकार्य के लिए बहुत सी, सामग्री
वहाँ रखी थी
रघुनन्दन ने देखा आकर, माँ तर्पण कार्य करती थी
प्रिय पुत्र को लख कौसल्या, उनकी तरफ बढ़ी हो हर्षित
मानो कोई अश्वा आये, निज बछड़े को देख उल्लसित
गले लगा, मस्तक सूँघा, जब राम ने किया प्रणाम
पुत्र स्नेहवश बोली माता, आयु, धर्म व मिले सम्मान
अब तुम जाकर मिलो पिता से, अभिषेक आज ही होगा
आसन दिया राम को फिर, भोजन का आग्रह किया
स्पर्श मात्र किया आसन का, फिर कुछ कहने को उद्यत
विनयशील स्वभाव से थे वे, माँ के सम्मुख मस्तक नत
दंडक वन उन्हें जाना था, करें आज्ञा लेने का उपक्रम
निश्चय ही तुम नहीं जानती, हुआ महान भय उपस्थित
जो बात मैं अभी कहूँगा, सीता, अनुज, तुम्हें दुःख होगा
आसन की अब नहीं जरूरत, अब तो मैं
अरण्य जाऊँगा
कुश की ही चटाई पर अब, समय आ गया है, बैठूं
कंद-मूल फल खाकर ही, निर्जन वन में निवास करूं
युवराज अब भरत बनेंगे, चौदह वर्ष मुझे वनवास
वल्कल आदि वस्त्र पहन, जंगल में करूंगा वास
यह अप्रिय बात सुनी जब, कौशल्या आ गिरी धरा पर
शालवृक्ष की शाखा जैसे, या स्वर्ग से देवी भू पर
जीवन में दुःख न पाया था, नहीं योग्य थीं दुःख पाने के
कटी हुई कदली की भांति, भू पर पड़ीं अचेत दशा में
श्रीराम ने शीघ्र उठाया, दिया हाथ का उन्हें सहारा
अंगों की धूल भी पोंछी, हुई थी जिनकी दीन दशा
भारी बोझ उठाया जिसने, दूर थकावट करना चाहे
लोट-पोट होती धरती पर, जो घोड़ी फिर उठना चाहे
उसकी भांति ही अंगों पर, लिपट गयी थी धूल अति
कौशल्या हुईं अति व्याकुल, अस्त व्यस्त सी खड़ी हुईं
कौशल्या ने सुख ही देखा था, उसके ही योग्य थीं वह
लक्ष्मण भी सुन लें जिनको, दुःख से कातर वचन कहे यह
यदि तुम्हारा जन्म न होता, मात्र यही शोक रहता
भारी दुःख जो आज आ पड़ा, वन्ध्या होने पर न होता
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