श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
षोडशः सर्गः
सुमन्त्र का श्रीराम के महल में पहुँचकर महाराज का संदेश सुनाना और श्रीराम का
सीता से अनुमति ले लक्ष्मण के साथ रथ पर बैठकर गाजेबाजे के साथ मार्ग में
स्त्री-पुरुषों की बातें सुनते हुए जाना
ज्ञान जिन्हें पुराणों का
था, सूत सुमन्त्र द्वार पार कर
जा पहुँचे एकांत कक्ष में,
नहीं भीड़ थी जरा जहाँ पर
धनुष लिए कुछ युवक खड़े थे,
कुंडल धारे स्वर्ण कर्ण में
वृद्ध पुरुष भी कुछ बैठे
थे, स्त्रियों के जो संरक्षक थे
देखा जब सुमन्त्र को आते,
उठकर सभी खड़े हो गये
कहा सूत ने कहो राम से, आए
हैं वे मिलने उनसे
सीता सहित राम विराजते, जब
संदेश मिला उनको
हों प्रसन्न पिता जिससे,
वहीं बुलाया तब सुमन्त्र को
वस्त्राभूषण से अलंकृत, राम
कुबेर समान सुशोभित
चन्दन लेप लगा अंगों में, स्वर्ण
पलंग पर थे विराजित
निकट अति सीता के बैठे,
चित्रा संग ज्यों हो चन्द्रमा
सीता बैठी चंवर हिलाएं, सूर्य
समान था तेज टपकता
दर्शन करके श्रीराम का, हाथ
जोड़कर कहा सूत ने
धन्य किया आपने माँ को, पिता
आपसे मिलना चाहें
सर्वश्रेष्ठ सन्तान है जिनकी, कौशल्या माँ बनी हैं ऐसी
शीघ्र चलें अब निकट पिता
के, जहाँ मिलेंगी माँ कैकेयी
कहा राम ने सुन सीता से, चर्चा
मेरे विषय में होगी
निश्चय ही विचार करते, माता-पिता
अभिषेक सम्बन्धी
राजा का अभिप्राय जानकर,
उनका प्रिय चाहने वाली
परम उदार कैकेयी उनको, इस
हित प्रेरित करती होंगी
अति प्रसन्न हुई वे होंगी,
मेर भला चाहती हैं वे
सौभाग्य की बात अति है,
महाराज भी संग हैं उनके
दर्शन करूँगा महाराज का, शीघ्र
यहाँ से मैं जाकर
परिजनों के संग रहो तुम,
आनंदित व सुखपूर्वक
मंगल-चिंतन सीता करतीं, गयीं
द्वार तक, वचन कहे
युवराज पद देकर राजा,
सम्राट पद दें बाद में
राजसूय यज्ञ में दीक्षित,
व्रत पालन करने में श्रेष्ठ
मृगचर्म धारी आप हों, लिए
हाथ में मृग का श्रृंग
इसी रूप में करूं मैं
दर्शन, सेवा में संलग्न रहूँ
शुभकामना यही है मेरी, सभी दिशाएं
रक्षक हों
बहुत सुन्दर प्रस्तुतिकरण ...
ReplyDeleteजय सियाराम!