Thursday, October 1, 2015

राजा की आज्ञा से सुमन्त्र का श्रीराम को बुलाने के लिए जाना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

चतुर्दशः सर्गः  
कैकेयी का राजा को सत्य पर दृढ़ रहने के लिए प्रेरणा देकर अपने वरों की पूर्ति के लिए दुराग्रह दिखाना, महर्षि वसिष्ठ का अंतःपुर के द्वार पर आगमन और सुमन्त्र को महाराज के पास भेजना, राजा की आज्ञा से सुमन्त्र का श्रीराम को बुलाने के लिए जाना 
सूर्योदय होने पर सागर, आमन्त्रण दे ज्यों लहरों से
स्वयं आप पाकर प्रसन्नता, हम सबको प्रदान करें 

देवसारथि मातलि ने, इसी बेला में स्तुति की थी
इंद्र हुआ विजयी सुनकर, जगा रहा आपको मैं भी

चरों वेद, समस्त विद्याएँ, स्वयंभू ब्रह्मा को जगातीं
उसी प्रकार आज आपको, जगा रही है स्तुति मेरी

साथ चन्द्र के मिल सूर्य, आधार स्वरूपा शुभ पृथ्वी को
ज्यों जगाता वैसे ही मैं, जगा रहा हूँ आज आपको

करें जागकर मंगल कृत्य, सिंहासन पर फिर विराजें
मेरु पर्वत से उठता उस, सूर्य समान शोभा पायें

 चन्द्र, सूर्य, शिव, कुबेर, करें आपको विजय प्रदान  
वरुण, अग्नि, और इंद्र भी, हे ककुत्स्थ कुल नन्दन !

नगर और जनपद के लोग, मुख्य-मुख्य व्यापारी गण
हाथ जोड़ कर हुए उपस्थित, वसिष्ठ मुनि भी हे राजन !

शीघ्र प्रदान करें आज्ञा, श्रीराम के अभिषेक की
ब्राह्मण जन भी आ पहुंचे, पूर्ण हुई तैयारी सारी

चरवाहों के बिना पशु ज्यों, सेना बिना सेनापति के
चन्द्र बिना रात्रि न शोभित, गायें नहीं बिना सांड के

ऐसी दशा उस राष्ट्र की, दर्शन न हो जहाँ नरेश का
पुनः शोक से ग्रस्त हो गये, सार्थक वचन सुन सुमन्त्र का

पुत्र वियोग की आशंका से, नष्ट हो चुकी मुख की आभा
शोक से लाल नेत्र थे उनके, नजर उठा सचिव को देखा

कहा नरेश ने तब पीड़ा से, सुना सुना कर ऐसी बातें
और अधिक आघात क्यों करते, मर्म स्थानों पर तुम मेरे

राजा के यह करुण वचन सुन, दीन दशा पर दृष्टिपात कर
उस स्थान से हटे तब पीछे, सुमन्त्र दोनों हाथ जोड़ कर

दुःख, दीनता से जब राजा, स्वयं कुछ भी न कह सके
ज्ञान जिसे था मन्त्रणा का, उस कैकेयी ने वचन कहे

राजा जागें हैं रात भर, राज्याभिषेक जनित हर्ष से
नींद आ गयी इन्हें अभी, थक गये हैं जागरण से

हो कल्याण तुम्हारा सूत, तुरंत बुलाओ यहाँ राम को
इस विषय में कोई और, अन्यथा नहीं विचार करो

तब सुमन्त्र ने कहा, भामिनी !, राजाज्ञा बिन कैसे जाऊं
सुन राजा ने कहा वचन यह, शीघ्र राम को मिलना चाहूँ

श्रीराम का दर्शन होगा, है कल्याण इसी में उनका
मन ही मन आनंद मनाते, लगे सोचने तब राजा

इधर सुमन्त्र तुरंत चल दिए, कैकेयी की बात पर सोचा
शायद जल्दी है रानी को, सम्भवतः थके हैं राजा

सागर में ज्यों जलाशय हो, वह सुंदर अंतः पुर था
निकल द्वार से वहाँ सूत ने, लोगों का समूह देखा

बहुसंख्यक पुरवासी आये, महाधनी अनेक पुरुष थे
द्वार खड़े उन लोगों पर, दृष्टिपात किया सुमन्त्र ने

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में चौदहवाँ सर्ग पूरा हुआ.


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