श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
सप्तदशः सर्गः
श्रीराम का राजपथ की शोभा देखते और सुहृदों की बातें सुनते हुए पिता के भवन
में प्रवेश
राज मार्ग से इसी तरह, रथ
पर बैठे राम गुजरते
आशीर्वचनों को सुनते व,
सुहृदों को आनंद बांटते
ध्वजा, पताकाओं से सज्जित,
चारों और सुगंध छा रही
भव्य सुसज्जित राजमार्ग पर,
भारी भीड़ दिखाई देती
चन्दन, अगुरु नामक धूप, ढेर
रेशमी वस्त्रों के थे
अलसी, सन के रेशों से भी,
बने वस्त्र वहाँ रखे थे
मोती थे अनबिंधे, स्फटिक,
राजमार्ग शोभित रत्नों से
भरा हुआ नाना पुष्पों से, भांति-भांति
के भोज्य द्रव्यों से
अक्षत, दही, हविष्य, लावा,
धूप, अगर, चन्दन बाती
उसके चौराहों की पूजा, थी गंध-द्रव्य
से की जाती
इन्द्रराज ज्यों स्वर्गलोक
में, रथारूढ़ श्रीरामचन्द्र थे
यथायोग्य करते सम्मान, अभिवादन
कर वे जाते थे
कहते थे उनके हितैषी,
पूर्वज चलते आये जिस पर
पालन करें हमारा भी, चलकर
आप उसी मार्ग पर
पिता और पितामहों से, जैसे
पालन हुआ हमारा
उससे भी बढ़कर होगा अब, राम
बनेंगे जब राजा
राज्य पर प्रतिष्ठित होकर, जिस
क्षण राम महल से निकलें
दर्शन उनका पाकर उस क्षण,
मोक्ष, भोग हम कुछ न चाहें
इससे बढ़कर नहीं प्रिय कुछ,
राज्यभिषेक हो शीघ्र राम का
सुंदर वचन यही सब सुनते,
श्रीराम का रथ बढ़ता था
एक बार जो उन्हें देखता,
तकता ही वह रह जाता था
निन्दित समझा जाता था वह,
जिसको न दर्शन मिलता
चारों वर्णों के लोगों से,
यथायोग्य राम मिलते थे
एक समान प्रेम था सब पर, इसीलिए
ये सभी भक्त थे
चौराहों, चैत्य वृक्षों को,
देवमार्गों, मन्दिरों को
दायीं और छोड़ते राम, चले जा
रहे पितृ भवन को
मेघसमूहों सा सुंदर था,
दशरथ भवन कैलाश समान
उज्ज्वल अट्टालिकायें
जिसमें, रत्नों से ज्यों जटित विमान
आच्छादित श्वेत प्रकाश से,
ऊँचे क्रीडा भवन बने थे
इंद्र सदन से सुंदर गृह
में, किया प्रवेश राम के रथ ने
तीन ड्योढ़ियाँ पार हुई जब,
रथ से उतर गये तब राम
दो को पार किया पैदल ही,
अंतः पुर का आया द्वार
शेष सभी रहे बाहर ही, करते
हुए प्रतीक्षा उनकी
जैसे सागर करता रहता, है प्रतीक्षा
चंद्रोदय की
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि
निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में सत्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ.
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