श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
चतुर्दशः सर्गः
कैकेयी का राजा को सत्य पर
दृढ़ रहने के लिए प्रेरणा देकर अपने वरों की पूर्ति के लिए दुराग्रह दिखाना, महर्षि
वसिष्ठ का अंतःपुर के द्वार पर आगमन और सुमन्त्र को महाराज के पास भेजना, राजा की
आज्ञा से सुमन्त्र का श्रीराम को बुलाने के लिए जाना
इक्ष्वाकु नंदन राजा दशरथ,
पुत्रशोक से पीड़ित थे
अति वेदना से पीड़ित हो,
पृथ्वी पर अचेत पड़े थे
देख उन्हें इस दीन दशा में,
दुष्ट कैकेयी यह बोली
दो वरदान मुझे देने की,
आपने ही प्रतिज्ञा की थी
पाप किया है जैसे कोई, ऐसे
आप हैं पछताते
सत्पुरुषों की जो मर्यादा,
उसमें टिके नहीं रहते
सत्य श्रेष्ठ धर्म है इसको,
धर्मज्ञ पुरुष भी बताते
उसी सत्य का ले आश्रय,
प्रेरित किया आपको मैंने
राजा शैव्य ने की
प्रतिज्ञा, देह बाज को देंगे अपनी
पूरी की थी वह प्रतिज्ञा,
उत्तम गति प्राप्त कर ली
वेदों के ज्ञाता ब्राह्मण
को, दोनों आँखें दे डाली थीं
इसी प्रकार राजा अलर्क ने,
जब उसने याचना की थी
सत्य को जो प्राप्त हुआ,
सागर सत्य का पालन करता
छोटी सी सीमा भूमि का, कभी
उल्लंघन न करता
सत्य ही शब्द ब्रह्म है,
धर्म प्रतिष्ठित सत्य में ही
अविनाशी वेद सत्य है, सत्य
से ही ब्रह्म प्राप्ति
धर्म में स्थित बुद्धि
आपकी, सत्य का अनुसरण करें
आप ही दाता मेरे वर के, शीघ्र
ही उसको पूर्ण करें
धर्म के अभीष्ट फल हित, राम
को वनवास दीजिये
तीन बार दोहराती हूँ मैं, प्रतिज्ञा
का पालन कीजिये
यदि हुआ न ऐसा तो मैं,
प्राणों का परित्याग करूँगी
इस प्रकार जब हो निशंक, प्रेरित
करती थी कैकेयी
तोड़ सके न बंधन राजा, जैसे
बलि वामन के पाश को
उस बैल की भांति बंधे जो, दो
पहियों के बीच फंसा हो
फीकी पड़ी कांति मुख की,
विकल नेत्र न कुछ देखते
कठिनाई से धैर्य धरा तब, उर
सम्भाल रानी से बोले
अग्नि के समीप मैंने,
मन्त्रों का उच्चारण करके
तेरे जिस हाथ को पकड़ा,
त्याग रहा उसे आज मैं
त्याग पुत्र का भी करता
हूँ, रात बीतने को ही है
शीघ्र करें राज्यभिषेक, सभी
कहेंगे, प्रातः हुआ है
जो सामान किया एकत्र,
श्रीराम के राजतिलक हित
उससे जलांजलि दिलाना,
किन्तु न देना तू व भरत
जनसमुदाय हुआ था हर्षित,
राज्याभिषेक के समाचार से
आज देख न सकूँगा मैं, उनके दुखी
मुखों को लटके
बीती रात्रि हुआ प्रभात, कैकेयी
पुनः यह बोली
विष और शूल आदि रोगों सम,
क्यों बोलते हैं वाणी
श्रीराम को यहाँ बुलाये, बिना
क्लेश के वन भेजें
राज्यलक्ष्मी भरत को सौंपे,
निष्कंटक मुझे करें
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